Monday, November 24, 2008

देवीधुरा यात्रा

मुझे अपनी भावनाओं को कैमरे से व्यक्त करना ज्यादा आसान लगता है पर इस बार मैंने शब्दों से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिश की है। पता नहीं मैं अपनी इस कोशिश में सफल हो भी पाई हूं या नहीं

26 मार्च 2007
काफी समय से देवीधुरा जाने का मेरा मन था क्योकि मुझे माँ की खरीदी हुई घंटी वहाँ चढ़ानी थी जो पिछले 9-10 सालों से घर में लटकी हुई थी। इस बार अचानक ही देवीधुरा जाने की प्लान बन गया वह भी नवरात्रि में तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि माँ की घंटी अच्छे समय में चढ़ जायेगी।

हम लोग सुबह 6.50 पर नैनीताल से देवीधुरा के लिये निकल गये। भवाली पहुँचने पर हमने रास्ते के लिये कुछ सामान खरीदा और आगे निकल गये। कुछ देर में हमने पदमपोरी पार कर लिया था। यहाँ से जो बुरांश (रोहोडोडेन्ड्रॉन) दिखना शुरू हुआ तो देवीधुरा जाने तक दिखता ही रहा। इतना ज्यादा बुरांश मैंने पहले कभी नहीं देखा था। जहाँ नजरें पड़ रही थी सब जगह बुरांश ही बुरांश इसलिये मुझे कहना ही पड़ा कि - यह तो बिल्कुल बुरांश की घाटी सी नजर आ रही है। कई चिड़िया भी दिख रही थी पर जैसे ही हम लोग कार से उतर कर बाहर निकल रहे थे सारी चिड़िया गायब हो जा रही थी। पर हाँ एक चीज को देखकर काफी बुरा लगा कि चीड़ के जंगल इतने ज्यादा बढ़ने लगे हैं कि वह मिले जुले जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यह पूरा रास्ता घाटी की तरह है। कहीं पर अचानक ही ऊँचाई तो कहीं बिल्कुल नीचे। इन जगहों को अभी विकास की हवा नहीं लगी है इसलिये घाटियाँ बिल्कुल साफ-सुथरी हैं। नैनीताल में रहने वाली मैं तक भी इन जगहों में जाकर ऐसा महसूस करने लगी कि कितनी साफ जगह आ गई हूँ क्योंकि अब नैनीताल भी काफी ज्यादा प्रदूषित हो गया है। हमेशा कोहरे की परत सी चढ़ी रहती है जिस कारण पारदर्शिता कम होती जा रही है पर इन जगहों में तो ऐसा लग रहा था जैसे पानी का पाइप लगा कर सब साफ कर दिया हो और कहीं भी धूल का नामोनिशान तक नहीं है। रास्ते भर मैं सिर्फ यही कहती रही कि कितना साफ लग रहा है यहाँ सब कुछ।

देवीधूरा जाते समय हम दो जगह रास्ते में रुके और जंगल की तरफ निकल गये। यह जंगल मिक्स फॉरेस्ट था जिसमें काफी बुरांश खिला था साथ में और भी कई तरह के घास और पेड़ थे जिन्हें गाँव की कुछ औरतें और बच्चियाँ जानवरों के लिये ले जा रही थी। इस जंगल में काफी आगे निकल कर हमने अपने बैठने के लिये एक अच्छी जगह बनाई और वहाँ से पूरी घाटी का नजारा देखने के साथ-साथ कई चिड़ियाओं की आवाजें भी सुनाई दे रही थी पर नजर कोई नहीं आयी। कुछ समय वहाँ बिताने के बाद हम वापस अपनी कार में आ गये और आगे का रास्ता लिया। कुछ दूरी पर बेरचूला गाँव पड़ा जो कि निहायत ही सूखा हुआ इलाका है। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस जगह मैं पानी की भी कमी है और यहाँ की मिट्टी भी बिल्कुल चमकीली पीली है जिसमें कुछ होना बहुत कठिन है। यहाँ हम लोगों ने एक बात और देखी कि यहाँ चीड़ के जंगल ज्यादा थे और मौसम में अजीब सी उदासी भरी गर्मी महसूस हो रही थी। इस जगह भी हम कुछ समय के लिये रुके और जंगल की तरफ बढ़ गये। यह पूरा चीड़ का जंगल था जिसमें न ढंग की कोई बैठने की जगह मिली और न ही चिड़ियाँ दिखी। पेरूल के पत्तो चेहरे और आंखों में बुरी तरह से चुभ रहे थे और जो नये चीड़ के पेड़ उग रहे थे वो बिल्कुल बौने चीड़ का सा अहसास दे रहे थे। इस जगह हम सिर्फ 20-25 मिनट ही रुके।

एक घंटे बाद हम देवीधुरा में थे। देवीधुरा में प्रवेश करते ही मुझे देवी का मंदिर सामने पर नजर आ गया और न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया कि - देवी का मंदिर ऐसा है। यह जगह तो बिल्कुल उजड़ी हुई सी लग रही है। उसका कारण यह था कि यहाँ पर बिल्कुल जंगल नहीं था और चारों तरफ मकान और दुकान ही थे। और तो और इतनी पवित्र जगह में तक भी हमें दिन-दहाड़े आधे से ज्यादा लोग शराब पिये हुए ही मिले। खैर हम फॉरेस्ट रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ के रेंजर से मिले तो पता चला कि उनके रैस्ट हाउस में तो रिनोवेशन का काम चल रहा है। उन्होंने हमें कहा कि - मैं तुम्हारे लिये पी.डब्ल्यू.डी के रैस्ट हाउस में रहने का इंतजाम कर दूंगा पर अगर वहाँ पहले से ही बुकिंग होगी तो आप हमारे धूनाघाट वाले रैस्ट हाउस में चले जाइयेगा। कुछ देर रेंजर से बात करने के बाद हम लोग पी.डब्ल्यू.डी. के रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ जा कर पता चला कि वहाँ पहले से ही बुकिंग है क्योंकि नवरात्रि जो चल रही थी। वहाँ रुके रहने का कोई फायदा नहीं था सो हम लोग धूनाघाट कर तरफ, जो वहाँ से 25 किमी. की दूर पर था, बढ़ गये। अब हमारे चेहरों में थोड़ी-थोड़ी परेशानी और थकावट भी नजर आने लगी थी। शायद इसी थकावट और परेशानी के कारण धूनाघाट हमारे दिमाग से निकल गया और हम धूनाकोट कहने लगे। एक चौराहे पर पहुँच कर हमने कुछ लोगों से धूनाकोट का रास्ता पूछा तो उन्होंने हमें मूनाकोट का रास्ता बता दिया और हम इस रास्ते पर करीब 20-25 किमी. आगे निकल गये।

यह इलाका निहायत ही बंजर दिखाई दिया। लोगों में भी एक मतलबी चेहरा नजर आया। जब काफी आगे पहुंचने पर भी हमें अपना रैस्ट हाउस नजर नहीं आया तो हमने एक आदमी से पूछा कि - धूनाकोट का रैस्ट हाउस कहाँ है ? उसने कहा - ये जगह तो मूनाकोट है यहाँ पर कोई भी रैस्ट हाउस नहीं है और धूनाकोट भी कोई जगह नहीं है धूनाघाट है। हमने उससे पूछा - धूनाघाट कहाँ है तो बोला - मुझे भी रीगल बैंड तक लिफ्ट दो मुझे वहाँ जाना है। आगे का रास्ता में उसके बाद बताऊँगा। उसके इस तरह बात करने से हमें बड़ा अजीब भी लगा और हंसी भी आयी। खैर हमने उसे बोला कि हम गाड़ी बैक करके वापस आते हैं तुम इंतजार करो। हमेशा शांत रहने वाले हमारे ड्राइवर ने नाराजगी से बोला - वह अपने जुगाड़ में लगा है। इसको तो अभी ठीक करता हूँ और उसके सामने से गाड़ी ले जाते हुए उसको बोलता गया कि - हम आगे-आगे चलते हैं तुम आओ पीछे से। ड्राइवर के इस जवाब से हमें बहुत हंसी आयी और अच्छा भी लगा क्योंकि जैसे उसने हमें बेवकूफ समझा दूसरों को नहीं समझेगा। उसके बाद तो हम उस बंदे को भूल ही नहीं पाये। कुछ देर बाद आखिरकार हम लोग धूनाघाट पहुँच ही गये और रैस्ट हाउस के अंदर भी चले गये। मैं काफी खुश थी कि अब नहा धोकर थोड़ी देर आराम करने को मिल जायेगा। ड्राइवर भी खुश था क्योंकि वो भी काफी थक गया था।

लेकिन हमारी परेशानी अभी भी बनी रही जब हमें पता चला कि रैस्ट हाउस का चपरासी वहाँ नहीं है और पूरा रैस्ट हासउ बंद पड़ा है। हम लोग गुस्से से आग बबूला भी हो रहे थे जिसका कोई फायदा नहीं था क्योंकि गुस्से से हमें रहने को जगह नहीं मिलने वाली थी। अब रात भी हो रही थी और जगह अंजानी थी सो मैंने फैसला किया कि हम लोग समय से कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस में चले जाते हैं जो वहां से 5 किमी. दूर था। यह हम सबके लिये काफी बुरा अनुभव था पर इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। जब हम आगे बड़े तो हमें दो-चार दुकानें नजर आयी। हमने सोचा यहाँ पर पूछ लेते हैं क्या पता चपरासी यहाँ बैठा हो या किसी को कुछ पता हो तो वहाँ लोगों ने बताया कि - उसका नाम बोराजी है। वो ऊपर अपना मकान बना रहा है। हम उसके मकान की तरफ गये और 'बोरा जी........बोराजी' कहकर उन्हें आवाज लगायी। एक दुबला-पतला, नाक से बोलने वाला और शक्ल से ही गरीब नजर आने वाला एक आदमी हमारे सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया। हम लोग काफी गुस्से में थे और उससे बोले - 'क्या बोरा जी खुद तो मकान बना रहे हो और हमें चौराहे पर खड़ा कर दिया आपने। एक घंटे से वहाँ खड़े हैं। वो तो दुकान से आपके बारे में पता चल गया। नहीं तो हम लोग तो कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस को जा रहे थे।' बोराजी ने हाथ जोड़े हुए कहा कि 'साब आज तो कोई बुकिंग नहीं थी।' हमने कहा 'रेंजर साब ने फोन तो किया था कि हम लोग फॉरेस्ट के बंगले में आ रहे हैं'। बोरा जी ने कहा कि 'मैं तो डाक बंग्ले का चपरासी हूँ।' हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या कहें क्योंकि कहने को कुछ था ही नहीं। खैर अपनी गलती थी तो हमने माफी मांग कर अपनी समस्या उनको बता दी। बोराजी ने कहा कि - अगर आप चाहो तो डांक बंग्ले में रुक सकते हैं। मैं वहाँ आपके लिये इंतजाम कर सकता हूँ। उनकी बात सुनकर बहुत अच्छा लगा और इतने धक्के खा लेने के बाद हममें से कोई भी और धक्के खाने को तैयार नहीं था।

हमने बोरा जी से पूछा कि - वहाँ सोने के लिये बिस्तरा है ? वह बोले - हाँ साब! बैड के उपर चादर बिछी है। बात समझ के बाहर थी बैड के उपर चादर........... पर बाद में हमें समझ आया कि उनका कहने का मतलब है डनलप। उनको गाड़ी में बिठाकर हम वापस डांक बग्ले की तरफ मुढ़ गये और सोचा कि एक बार देख लेते हैं.......कमरा अच्छा तो नहीं कहा जा सकता था पर उस समय हमारी जो हालत हो चुकी थी हम झोपड़े में रात काटने को भी तैयार थे सो हमने वहीं रुकने का निश्चय कर लिया। पहले हमने ड्राइवर के लिये कमरा ठीक करवाया। अपने कमरे की रजाई उसे बिछाने के लिये दी और दो कंबल जिसमें से एक उसका अपना था और एक हमने दे दिया था। उसके बाद हम अपने कमरे में आये और उस की हालत ठीक की। हम सब के ही थक के बुरे हाल हो रहे थे और मन कर रहा था कि गुनगुने पानी से मुंह, हाथ-पैर धोकर थोड़ा हल्का हुऐं। मैंने बोरा जी से पानी गरम करने को कहा तो उन्होंने कहा आग जलाकर कर देंगे। खैर बेचारे बोराजी शरीफ आदमी थे। उन्होंने पानी गरम किया और एक कमरा जिसमें गंदी और टूटी हुई टॉयलेट भी थी, रख दिया। जैसे ही मैंने पहला डब्बा पानी का पैर में डाला मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई क्योंकि पानी इतना गरम था और ठंडा पानी भी नहीं था इसलिये मैंने जैसे तैसे हाथ-पैर धोये और बाहर आयी। तब तक साथ वालों ने बोरा जी को कुछ रुपये और सामन का पर्चा देकर बाजार से कुछ सामान लाने को कह दिया था। जब मैं बाहर आयी तो सबने कहा कि 'अब तो तू अच्छा फील कर रही होगी।' मेरा जवाब था 'हां ! कुछ ज्यादा ही क्योंकि बोराजी ने तो गरम पानी देकर मार डाला।' उसके बाद काफी देर तक हम हँसते रहे। थोड़ी देर बिस्तर में लेट कर थकावट मिटाने की सोची पर बैड में बिछा डनलप इतना सख्त था कि हम लोग उसमें लेटे हुए अकड़ से गये। थोड़ी देर में बोराजी चाय लेकर आये और बोले खाना बनाने के लिये मेरी पत्नी आयेगी। हम लोग वहाँ पर बने समर हाउस में बैठने के लिये चले गये। बहुत ठंडी हवायें चल रही थी सो मैं तो वापस कमरे में आकर चिड़ियों की किताब देखने लगी। थोड़ी देर में बाँकि लोग भी आ गये और हम लोग बिस्तरे में घुस कर गप्पें मारने लगे।

तभी मैंने कहा कि काफी देर से बोराजी कहीं नजर नहीं आये देखते हैं हमारे खाने का क्या हो रहा है ? इसलिये हम बाहर निकल आये। पहले बोरा जी की रसोई में गये वहाँ देखा उनकी पत्नी खाना बना रही थी और वो उसकी मदद कर रहे थे। हमारा ड्राइवर भी उनके साथ बैठा बातें कर रहा है। हम भी जाकर बोरा जी के साथ बैठ गये और उनसे बातें करने लगे। उन्होंने बताया कि वो इस डांक बंग्ले में 30 साल से काम कर रहे हैं। इससे पहले उनके बाबूजी और उससे पहले उनके बाबूजी इस बंग्ले के चौकीदार थे। उन्होंने कहा कि - मैंने 30 रुपये से नौकरी शुरू की थी और अब मुझे 1500 रुपये मिलते हैं जो खर्चे के लिये काफी कम है। उनका कहना था कि - इस बंग्ले की देखभाल कोई नहीं करता कितनी बार मैंने साब लोगों से कहा पर कोई इसकी तरफ ध्यान नहीं देता। मैंने उनके परिवार के बारे में पूछा तो बोले - दो लड़के हैं दोनों दिल्ली में काम कर रहे हैं। मकान के लिये रुपये भी वो ही दे रहे हैं क्योंकि मेरी अब ऐसी उम्र नहीं रह गयी है कि मैं इतना काम कर सकूँ। यहाँ के साब लोगों से बात की है कह रहे थे कि मेरे रिटायर होने के बाद मेरे बेटे को यहाँ चपरासी की नौकरी दे देंगे। बस इसी आस के साथ मैं यहाँ अभी भी काम कर रहा हूँ। उनकी बातें सुनकर बुरा भी लगा और उनके उपर दया भी आयी पर इसका कोई फायदा नहीं था सो मैं बाहर की तरफ घूमने निकल आयी। काफी गहरी रात थी और चांद भी आधा था पर फिर भी उसकी रोशनी इतनी ज्यादा थी कि स्ट्रीट लाइट की जरूरत ही महसूस नहीं हो रही थी। रास्ता बिल्कुल साफ चमक रहा था। हमें ऐसे घूमना काफी अच्छा लगा और घूमते-घूमते काफी आगे निकल आये। उसके बाद अचानक याद आया कि अब शायद खाना बन चुका होगा इसलिये वापस पलट गये।

बोरा जी की पत्नी ने हमारी इच्छानुसार अरहर की दाल और आलू टमाटर की सब्जी बनाई थी। साथ में हमें मंदिर से आये प्रसाद वाली पूरी भी दी। खाना काफी टेस्टी बना था। काफी लम्बे समय के बाद मुझे अच्छा सिल-बट्टे में पीसे मसाले का खाना खाने को मिला पर रोटिया बहुत मोटी बनी थी सो एक रोटी के बाद दूसरी मेरी हिम्मत के बाहर थी। बोरा जी की पत्नी बहुत ही खतरनाक किस्म की पहाड़ी बोल रही थी जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल था पर मैं शब्दों को जोड़तोड़ के समझ रही थी और उनको जवाब दे रही थी। खाना खाने के बाद हमने फिर एक छोटी सी वॉक पर जाने की सोची लेकिन बोराजी ने कह दिया कि - ज्यादा दूर मत जाना। रात का समय है। वैसे तो यहाँ ज्यादा जंगली जानवरों का खतरा नहीं है पर फिर भी सड़क में शराबी भी मिल सकते हैं। उनकी बात से मेरे मन में एक खटका सा बैठ गया। मुझे लगा जंगल है तो जानवर न हों ऐसा नहीं हो सकता है। बोरा जी ने शायद सोचा होगा कि कहीं हम डर न जायें इसलिये सीधे कुछ नहीं कहा पर इशारा किया। उनकी इस बात को मानते हुए हमने वॉक पर जाना ठीक नहीं समझा। कुछ देर वहीं बाहर बरामदे में बैठ कर चांदनी रात का मजा लिया और फिर कमरे में आकर सो गये। ढकने के लिये मात्र एक-एक कम्बल ही हमारे पास था इसलिये रात को ठंड भी लग रही थी। उस पर डनलप इतना सख्त था कि कमर की ऐसी-तैसी हो गयी।
27 मार्च 2007
सवेरे चिड़ियों के चहचहाने से मैं बाहर आयी तो काफी ठंडी हो रही थी इसलिये वापस अंदर चली गयी। थोड़ी देर बाद मैंने बाकियों को भी उठाया जो मुश्किल से उठने को तैयार हुए। हम जैसे ही उठ कर बाहर आये कि बोरा जी और उनकी पत्नी भी उठ गये और हमें चाय बनाकर दी। वो तो उनका प्यार और सेवा भाव ही था कि हम चाय पी गये वरना तो चाय क्या थी ऐसा लग रहा था कि चीनी में पानी मिला रखा है। चाय पीने के बाद हम वॉक पर निकल गये। जैसे ही मैं बाहर को निकली बोरा जी ने मुझे देखा और कहा - अभी ही........मैं उनका मतलब नहीं समझ पायी और आगे बढ़ गयी। बाद मैं मुझे खयाल आया कि शायद बोराजी को लगा कि मैं उनकी फोटो खींच रही हूँ। खैर मैंने डिसाइड किया कि मैं जाने से पहले उनकी फोटो खींच लूंगी। सुबह को भी जाते-जाते मैं बहुत आगे निकल गयी थी। सवेरे के समय मुझे काफी चिड़ियां दिखी पर ज्यादातर मेरी देखी हुई थी। लेकिन नैटथैचर मैंने पहली बार इतने नजदीक से यहाँ पर देखी। वो पानी के पास वाली मिट्टी पेड़ में ले जाकर अपना घोंसला बनाने में व्यस्त थी इसलिये हमने उसे ज्यादा परेशान नहीं किया और आगे का रास्ता नापा। जाते हुए हमें कोई भी गांव नजर नहीं आया पर हां काफी रास्ते दिख रहे थे तो हमने सोचा की गांव की औरतें घास लेने के लिये आती होंगी तो उन्होंने ही शायद इन रास्तों को बना दिया होगा। काफी आगे जाकर एक मैदान में हम बैठ गये और 15-20 मिनट तक बैठे रहे। जब हम वापस आ रहे थे तो हमें एक अजीब सी चिड़ियां दिखी जिसकी पूंछ पीछे से पूरी मुड़ी थी। मैंने ऐसी चिड़िया के बारे में न देखा है न सुना है इसलिये मुझे यह भी लगा कि शायद मुझसे देखने में ही गलती हुई। लेकिन इस कारण से मैं कम से कम उस दिन तो काफी परेशान रही।

आज हमने पूजा करने के लिये मंदिर भी जाना था इसलिये जल्दी से नहा धोकर तैयार हो गये। आज भी पानी काफी गरम था पर मैंने पहले ही ठंडा पानी मिलाकर अपना इंतजाम कर लिया था। उसके बाद जब और लोग अपने नहाने के जुगाड़ में लगे थे। मैंने बोराजी का फोटो खींच लिया पर उनकी पत्नी जा चुकी थी जिसका मुझे काफी मलाल रहा। बोराजी शर्मा रहे थे पर फोटो भी खिचाना चाहते थे। मैंने उनसे पूछा की यहाँ इतना चीड़ है इससे क्या फायदा होता है। वे बोले कि - चीड़ से हमें कोई फायदा नहीं होता पर सरकार को फायदा होता है क्योंकि वो लकड़ी काटते हैं। मैंने उनसे पूछा कि - क्या आपको भी इन जंगलों से लकड़ी मिल जाती है ? वह बोले कि - उसके लिये तो पहले वन विभाग की खुशामद करनी पड़ती है उनको 500 रुपये देने पड़ते हैं तब जाकर कहीं एक छोटा पेड मिलता है उस पर भी उसकी कटाई और ढुलाई मिलाकर वो लगभग 5000 से 6000 रुपये तक पड़ जाता है। मैंने उनसे कहा - आप तो गांव वाले हो जंगल में आपका हक बनता है। इस नाते कोई पेड़ आपको नहीं मिलता ? उनका कहना था कि - गर्मियों में जब जंगल में आग लगती है तो हम आग बुझाने जाते हैं उस समय थोड़ी लकड़ी मिल जाती है। बांकी तो कुछ भी नहीं होता है।

मैंने उनसे डांक बग्ले के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि - अंग्रेजों ने जो किया था उसके अलावा इसमें कोई काम नहीं हुआ। एक बार एक अधिकारी यहाँ आकर रुके तो उन्होंने कुछ रेलिंग लगाई थी पर और तो कुछ काम नहीं हुआ। फसल के बारे में उनका कहना था कि - मिर्च के अलावा कुछ नहीं होता क्योंकि यहाँ लंगूर-बंदर बहुत उजाड़ा करते हैं और इनको मारना तो मुसीबत है इसलिये हमने फसलें उगानी ही छोड़ दी। हमने उनसे कमरे के किराये के बारे में पूछा तो डरते-डरते उन्होंने 200 रुपये मांगे। हमें लगा काफी कम हैं इसलिये हमने उन्हें 500 रुपये दे दिये। अब हमारे जाने की बात आई तो हमने कहा कि हमें थोड़ा समय लगेगा आप जाइये हम चाबी कहीं छुपा जायेंगे। तो वो बोले कि नहीं मैं घर जाकर पत्नी को भेज दूंगा। जब उनकी पत्नी आयी तो वो पहले से ही फोटो खिंचाने के लिये तैयार सी लगी। मैंने जैसे ही उनसे कहा तो उन्होंने जल्दी से अपनी धोती ठीक की और एकदम तैयार हो गई। मुझे गांव वालों की यह मासुमियत बहुत अच्छी लगती है लेकिन हंसी भी बहुत आती है। उसके बाद हम वहां से वापस देवीधुरा आ गये।

वैसे तो हमारा फैसला था कि हम दूसरे दिन वापस आ जायेंगे पर पहला दिन हमारा पूरा यात्रा में ही निकल गया सो हमने फैसला किया कि जाते हुए हम पी.डब्ल्यूडी के रैस्ट हाउस में पता कर लेंगे अगर वहां कोई बुकिंग नहीं होगी तो आज वहीं रुकेंगे और दूसरे दिन सवेरे ही वापस आ जायेंगे। जैसा हम चाहते थे वैसा ही हुआ। हमें आसानी से पी.डब्ल्यू.डी. के रेस्ट हाउस में बुकिंग मिल गई। हम अपना सारा सामान वहीं छोड़ कर मंदिर चले गये। मंदिर में अब देवी की नई मूर्ति है जो शायद जयपुर से आयी है। हमारी पूजा ठीक तरह से हो गई और सबसे बड़ी बात की मेरी घंटी बिल्कुल मंदिर के आगे चढ़ गयी जिसकी मुझे बेहद खुशी है। जो मेरा असली उद्देश्य था वो पूरा हो गया। उसके बाद हमने एक बच्चे को जो वहाँ के किसी पुजारी का बेटा था, गाइड की तरह रखा और उसे बोला कि हमें सारा मंदिर घुमा दे। पहले वो हमें गुफा में ले गया। इसका रास्ता बहुत ही पतला है हम लोग दुबले-पतले हैं इसलिये निकल गये पर मोटे लोग तो शायद ही यहाँ से निकल पायें।

खैर काफी छोटे बड़े मंदिरों से निकलने के बाद हम लोग उस जगह पहुंचे जहाँ भीम ने गदा मारी थी। वहाँ से काफी गांव दिख रहे थे उस बच्चे ने हमें बताये भी पर मैं अब भूल गई हूं। हमने वहाँ पड़ी उस दरार को भी देखा जिस जगह में भीम ने हाथ का पंजा मारा था वो जगह और निशान भी देखे जो थोड़ा कन्फयूजिंग थे क्योंकि वहां पर पांच अंगूलियों और 1 अंगूठे का निशान बना था। खैर वहाँ से जब हम वापस आ रहे थे तो एक गुफा के पास एक पंडित बैठा था जिसकी शक्ल मैं तो नहीं देख पायी पर जिन्होंने देखी उन्होंने मुझे बताया कि उसके सामने के दो दांत राक्षश की तरह हैं और उसके दोनों हाथ जलने की वजह से काटने पड़े। उसके बाद हम लोग वापस आ गये। हमने उस बच्चे को 50 रुपये दिये और उसका नाम पूछा तो उसने बताया - उसका नाम गोपाल दत्त है। वो 10 में पड़ता है और साइंस का छात्र है। उसके साथ उसकी छोटी सी बहिन भी थी जो अपना नाम बताने में शर्मा रही थी उसके भाई ने कहा इसका नाम मीनू है और ये पांच में पड़ती है। यह सुनकर हमें अच्छा लगा और हमने कुछ रुपये मीनू को दिये और वापस अपनी टैक्सी की तरफ आ गये जहाँ ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था।

फिर हम खाने की जगह ढूंढने लगे। जिससे भी हमने पूछा वो पिये हुए ही मिला। एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में आकर हमने खाना खाया और रैस्ट हाउस चले गये। मैंने तो सोच था कि खूब सोउंगी क्योंकि पहले दिन मैं बिल्कुल नहीं सो पाई थी। पर जब सोने गई तो मुश्किल से 1 घंटा ही सो पाई उसके बाद बाहर घुमने निकल आई। मेरे साथ वाले पहले ही उठ चुके थे और सामने की दुकान में चाय पी रहे थे। मेरे लिये भी एक चाय उन्होंने बनवाई। मैं चाय पीते-पीते ही सामने की नर्सरी में घूमने निकल गई। मुझे लगा की शायद हर्ब होंगी पर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा की वहाँ सिवा चीड़ के और कुछ नहीं लगा है। जितना चीड़ लगा था उससे 10 जंगल आराम से बन सकते थे। मुझे समझ नहीं आया कि सामने पे पहले ही चीड़ के इतने जंगल हैं जिनसे गाँव वाले खासे परेशान लग रहे थे फिर भी इतना चीड़ और अलग से क्यों उगाया जा रहा है। पूछने पर वहाँ के लोगों का सिर्फ इतना ही कहना था कि 'क्या करें सरकार ने ऐसा करने के लिये कहा है.....' खैर उसके बाद मैं कमरे में आई और घूमने जाने के लिये तैयार हुई।

कैमरा उठाया और जंगल की तरफ निकल गये। ये भी चीड़ के जंगल थे। सामने पर हिमालय की काफी अच्छी रेंज दिख रही थी और हाँ मुझे गुलाबी बुरांश भी जरूर दिखा। इसका क्या कारण था वो मुझे समझ नहीं आया। शाम के समय जब हम वापस रैस्ट हाउस को आ रहे थे तो मुझे अचानक ही ग्रेट बार्बेट जिसे इस गाँव के लोग न्योली कहते हैं, की आवाज नजदीक से सुनाई दी। मैं आवाज की पीछा करते करते रैस्ट हाउस के सामने वाले जंगल में निकल गई। और सामने के पेड़ पर मुझे दो ग्रेट बार्बेट बैठी दिखाई दे गई। उस दिन रात को मेरी तबियत थोड़ी खराब हो गई थी जिस कारण मैं पहले काफी परेशान रही पर बाद में मुझे नींद आ गई थी।

रात के समय अचानक जब नींद खुली तो मैंने कुछ टिन कनस्तरों के बजने की आवाज सुनी। मुझे लगा शायद नवरात्रि का रतजगा होता हो इसलिये बिना किसी गंभीरता से इस बात को लिये मैं वापस सो गई और सुबह को 5 बजे चिड़ियों की आवाज से नींद खुली और अपने वापस आने की तैयारी की क्योंकि आज सुबह ही हमारी वापसी थी। जब मैं बाहर आई तो मैंने रैस्ट हाउस के चपरासी से रात के टिन कनस्तरों की आवाजों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि - वो आवाजें मंदिर से नहीं आ रहीं थी बल्कि गाँव वाले खेतों में घुस आये जंगली सुअरों को भगाने के लिये ऐसा कर रहे थे नहीं तो सुअर सारी फसलें चौपट कर देते। थोड़ी देर में हम लोग वापस नैनीताल के लिये निकल गये।

रास्ते में एक जगह मेरे साथ वालों ने चाय पी। मैं तो नहीं पी सकी क्योंकि वहाँ पर काफी धूल थी और मैं धूल से परेशान हो जाती हूँ पर मजा तो तब आया जब उस दुकान वाले ने जो जलेबी बेचने के लिये बाहर रखी थी उस पर बंदर झपटे और सारी जलेबी उठा कर ले गये और दूर बैठ कर मुंह चिढ़ाते हुए खाने लगे। हम देवीधुरा जाते समय जिस मंदिर में जाना भूल गये थे उस मंदिर में इस समय गये। यह भगवान शिव का मंदिर है और इसकी खास बात यह है कि इसके ऊपर छत नहीं है। कहा जाता है कि कई बार इसके ऊपर छत डालने की कोशिश की पर हमेशा वो छत टूट गई इसलिये अब यहां छत नहीं है। एकबार इस मंदिर में जाने के लिये पक्की रोड भी बनाई पर गांव वाले कहते हैं कि भगवान की माया थी कि कुछ ही दिनों में इतनी तेज बारिश हुई की पूरी की परी सड़क ही गायब हो गई और यह वैसी ही हो गई जैसी पहले थी। यहाँ से पूरी घाटी का बहुत ही खूबसुरत नजारा दिखता है। थोड़ी देर इस जगह में रुकने के बाद हम अपने शहर की तरफ बढ़ने लगे। उसके बाद हम बिना किसी जगह रुके वापस आ गये और कुछ ही देर में हम नैनीताल में थे और सब अपने-अपने रास्तों को चल दिये इस उम्मीद के साथ कि शायद फिर कभी किसी यात्रा में ऐसे ही मिलें.........

Friday, November 14, 2008

बाल दिवस

बहुत से बच्चे शायद ऐसे भी होंगे जो बाल दिवस के बारे में जानते भी नहीं होंगे