Thursday, August 14, 2008

सारे जहां से अच्छा

सभी लोगों को स्वतन्त्रता-दिवस की कोटिशः बधाइयां.

इकबाल का पूरा नाम डॉ. अल्लामा मुहम्मद इकबाल था। इकबाल का जन्म 9-11-1877 को सियालकोट में हुआ था। उपके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे और करीब ढाई तीन सौ साल पहले मुसलमान हो गये थे। इकबाल ने सियालकोट से एफ.ए. करने के बाद लाहौर से बी.ए. किया और फिलोसॉफी की शिक्षा भी प्राप्त की। 23 वर्ष की आयु से उन्होंने मुशायरों में नज्में पढ़ना शुरू कर दिया था। 1905 में इकबाल योरोप चले गये और वहां कैम्बरिज यूनिर्वसिटि से फिलोसॉफी की परीक्षा पास की। ईरान की फलसफे पर एक पुस्तक लिखी जिस पर जर्मन की म्यूनिख यूनिर्वसिटी ने इन्हें पीएचडी प्रदान की। इसके बाद लंदन जाकर बैरिस्टरी का इम्तहान पास किया और 1908 में भारत लौट आये। लाहौर के सरकारी कॉलेज में ढाई साल तक पढ़ाया फिर यहां से त्यागपत्र देकर अपने जीवनयापन के लिये बैरिस्टरी शुरू की। इकबाल 1926 में लाहौर से काउन्सिल की मेम्बरी के लिये खड़े हुए और चुनाव जीत भी गये। इकबाल ने अपनी रिहाईश हमेशा लाहौर में ही रखी और अपने लिये एक खास कोठी बनावाई जिसका नाम अपने बेटे के नाम पर `जावेद मंजिल´ रखा। इकबाल ने फारसी में भी बहुत कुछ लिखा है। इकबाल का 65 वर्ष की आयु में दिनांक 21-04-1938 को देहांत हो गया।

इकबाल के बारे में इतने कम शब्दों में कह पाना मुश्किल हैं क्योंकि उनके जीवन के कई और भी पहलू हैं। जिनके बारे में फिर कभी बात करेंगे फिलहाल प्रस्तुत है उनकी एक नज्म जो उन्होंने अपने प्यारे हिन्दुस्तान के लिये लिखी है।

तराना-ए-हिन्द

सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबलें हैं उसकी ये गुलसिता हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल है जहा हमारा

पर्वत वो सबसे ऊंचा हम्साया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा

गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां
गुलशन है जिसके दम से रशके जिनां हमारा

ऐ आबे रौदे गंगा ! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखनस
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा

यूनान ओ मिस्र ओ रोमा सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाक़ी नाम ओ निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा

इकबाल ! कोई मरहम अपना नहीं जहां में
मालूम क्या किसीको दर्दे जहां हमारा