Monday, May 18, 2009

मेरी हरिद्वार यात्रा - 1

इस बार मुझे फिर काफी लम्बे समय के बाद हरिद्वार आने का मौका मिला। असल में आने का कारण तो एक घरेलू पूजा ही थी पर मेरे दिल में कुछ और भी चल रहा था क्योंकि हरिद्वार, मसूरी से मेरी बचपन की कई सारी यादें जुड़ी हुई हैं। जिन्हें में एक बार फिर से ताजा करना चाहती थी। पूजा 23 अप्रेल को होनी थी इसलिये मैंने 22 तारीख को सुबह नैनीताल से निकलने का निर्णय लिया। हालांकि इतनी भीषण गर्मी को देखते हुए इस निर्णय को बिल्कुल गलत ही कहा जायेगा पर मैं रास्ते में आने वाली हर चीज को एक बार फिर देखना चाहती थी।

सुबह करीब 6.30 बजे बस नैनीताल से हरिद्वार के लिये चली। बस में नैनीताल से हरिद्वार जाने वाले बस हम लोग ही थे। बांकी कुछ लोग हल्द्वानी जाने वाले थे। उनमें से एक को इतनी जोर से उल्टी आनी शुरू हुई की मेरे साथ वाले ने कहा कि - वीनू देख शेर दहाड़ रहा है क्योंकि उस एक ने पूरी बस में ऐसा तूफान खड़ा कर रखा था कि सभी अपने कानों में अंगूलियां डाले बैठे थे। जैसे-तैसे हल्द्वानी पहुंचे और उन सज्जन के आतंक से मुक्ति मिली। यहां से कई नये यात्री बस में सवार हो गये। ज्यादातर बीच के स्टेशनों में उतरने वाले ही थे। अभी तक तो गर्मी की मार से थोड़ा बचे थे क्योंकि सुबह का ही समय था पर जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था गर्मी भी अपने असली तेवर दिखाने लगी थी।

हम रास्ते में आगे बढ़ते जाते और मेरे दिमाग में कई बातें बचपन की भी तैरने लगती। जब में बचपन में आती थी तो सबकुछ कितना अजुबा सा लगता था। मां अकसर रास्ते में आने वाली हर चीज के बारे में बताती रहती थी। कोई खेत दिखे तो उन खेतों के बारे में बताती। जंगलों में मोर दिख जाते तो उनके बारे में बताती। खेतों में बैठे बगुलों के बारे में बताती। कोई सामान बेचने बस में चढ़ जाता तो उसके बारे में भी बताती थी। तब मैं छोटी थी इसलिये बहुत कुछ समझ में नहीं आता था पर फिर भी काफी कुछ पता चल जाता था और अच्छा भी लगता। जब मां कुछ नहीं बोल रही होती तो मैं ही मां से कुछ न कुछ पूछती रहती थी। अकसर जब रेल आने वाली होती तो फाटक के पास गाड़ी बहुत देर तक रुकी रहती थी तब मां ये भी बताती थी कि - अभी रेल आने वाली है इसलिये गाड़ी रुकी है। और साथ में ये भी बताती कि जब रेल आने वाली होती है तो उससे पहले उसकी सीटी की आवाज आने लगती है और मेरे कान सीटी की तरफ ही लगे रहते। कई और भी बातें मेरे दिमाग में चलती जा रही थी। और मेरा मन कह रहा था कि काश मैं आज भी बच्ची ही होती और कोई मुझे यूं ही हर चीज के बारे में बताता। पर अब तो मैं बड़ी हो चुकी थी मुझे हर चीज के बारे में पता था। बगुलों के बारे में मुझे काफी बातें पता थी। मोर के बारे में भी मैं सब कुछ जान चुकी थी। रेल आती है तो क्या होता है कि भी मुझे पूरी जानकारी थी पर फिर भी मन कर रहा था कि काश अभी भी मैं बच्ची ही होती.....

मेरे दिमाग में यही चल रहा था और गाड़ी आगे बढ़ती जाती और नये-नये स्टेशनों में रुकती। यात्रियों के साथ-साथ कोई न कोई सामान बेचने वाला भी उसमें चढ़ जा रहा था। इस बार एक मलहम बेचने वाला चढ़ा और जिस तरीके से उसने अपने मलहम के गुण बताये ऐसा लग रहा था जैसे मलहम न हो कर अमर बूटी है जो कि सिर्फ 10रु. में मिल सकती है पर अब यात्री भी समझदार हो गये हैं इसलिये किसी ने भी उस अमर बूटी को खरीदने की नहीं सोची। बाहर देखने पर कभी बड़े-बड़े फैले हुए खेत दिख रहे थे तो कभी जंगल नजर आ रहे थे। लेकिन जंगल अब उतने घने नहीं रहे थे। एक चीज और जो बहुत ही ज्यादा दिखी वो थी कूढ़ा। कूढ़ा कूढ़ा कूढ़ा......इतना कूढा कि जैसे कूढ़े की खेती की जा रही हो और उसमें हिन्दुस्तान का कोई सानी नहीं। यहां कूढ़ा वहां कूढ़ा....उफ।

अब गर्मी से हमारा बुरा हाल होने लगा था। पानी की बोतल में रखा पानी भी उबल रहा था और रास्ते से पानी लेने का रिस्क लेने को हम तैयार नहीं थे। कुछ देर बाद गाड़ी एक ढाबे के पास आधे घंटे के लिये रूकी जहां सबने भोजन किया। हम तो अपने साथ रखे चिप्स और नमकीन खा के ही गुजारा कर लिया क्योंकि रास्ते का खाना...ना बाबा ना। हमने पहले ही सोच लिया था कि रास्ते में तो कुछ खाना ही नहीं है। खाना निपटने के बाद गाड़ी जैसे ही कुछ दूर चली थी कि रास्ता जाम हो गया क्योंकि सामने पर दो गाड़ियां आपस में भिड़ी हुई थी जिस कारण ट्रेफिक अटक गया था और इसे खुलने में करीब आधा घंटा लग गया।

बाहर देखने में अब भी खेत नजर आ रहे थे खेतों में काम करते लोग दिख रहे थे। और साथ ही उन्हें देख के ये भी लग रहा था कि क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती होगी ? इतनी भीषण गर्मी में खुले आसमान के नीचे काम करने वाले ये किसान कितना कठिन जीवन जीते हैं और ऐवज में उन्हें क्या मिलता होगा ? बीच में पड़ने वाले बाजारों को देख के जगह के बदलने का अहसास हो रहा था। जैसे-जैसे जगह बदलती दिवारों में लगे विज्ञापन भी बदलने लगते जिन्हें देखना और पढ़ना सबसे ज्यादा मजेदार होता है।

करीब 2.30 में हम हरिद्वार में पहुंच चुके थे। हालांकि मुझे थोड़ा बहुत अंदाजा था हरिद्वार का फिर भी मेरे साथ वालों ने जो प्लेनिंग की थी हमने उसके अनुसार चलने का ही फैसला लिया। उन्होंने बोला कि हम लोग शांतिकुंज जाते हैं और वहीं रहेंगे। और हम लोग शांतिकुज चले गये। मुझे ये बात कुछ समझ नहीं आयी और मैंने बोला कि हरिद्वार के बाजार में काफी होटल रहने को मिल जायेंगे। शांतिकुंज तो बहुत दूर है वहां हम शहर से बिलकुल बाहर हो जायेंगे जो मैं नहीं चाहती थी क्योंकि किसी भी जगह के बारे में वहां के बाजारों से ही तो पता चलता है। खैर मेरा कहना मान लिया गया और हम लोग वहां से वापस लौटे और एक टैक्सी वाले को बोला कि हमें किसी ढंग के होटल में ले चले।

वो टैक्सी वाला भी अच्छा निकला उसने हमें एक अच्छे होटल के बारे में बता दिया और वहां ले गया। रास्ते में हमने उससे पूछा कि - यहां जो धर्मशालायें हैं उनमें रहना कैसा रहेगा। उसने बोला कि - साब मैं तो कहूंगा होटल ही ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि धर्मशालायें तो अब बस नाम की ही रह गयी। करीब आधे घंटे बाद उसने हमें होटल पुरोहित में ला दिया। वहां कमरा और चार्ज हमें ठीक लगे इसलिये हमने वहीं रुकने का फैसला किया। ये होटल गंगा घाट से बस 5 मिनट की दूरी पर ही था। हमने कमरे में जा के कुछ खाना खाकर थोड़ा रेस्ट करने का फैसला किया और उसके बाद गंगा घाट जा कर आरती देखने की सोची थी जो कि करीब 7 बजे शुरू होती है।

जारी.....