Thursday, June 4, 2009

ऐसे भी लोग होते हैं - ३

स्व. श्री बंशीधर कंसल इस देश के ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे जिन्होंने देश की आजादी के लिये अपना सब कुछ लुटा दिया पर फिर भी वह हमेशा गुमनामी के अंधेरे में ही खोये रहे। बंशीधर कंसल का जन्म सन् 1916 में नैनीताल में हुआ और जीवन के अंत तक उनकी कर्मस्थली भी जिला नैनीताल ही रही। फिर भी उन्हें उनकी ही कर्मस्थली में कभी भी वो सम्मान मिल पाया जिसके वो हकदार थे।

बंशीधर को बचपन से ही स्वतंत्रता संग्राम का माहौल मिला। उनके पिता स्व. श्री बाबू राम कंसल भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी देखा-देखी बंशीधर भी इस आंदोलन में शामिल हो गये। जब वह 7वीं या 8 वीं कक्षा में नैनीताल के हमफ्री हाईस्कूल (वर्तमान में सी.आर.एस.टी. इंटर कॉलेज, नैनीताल) में पढ़ते थे तब ही उन्होंने अंग्रेजो के स्कूल में ही उनका विरोध करते हुए भारत का तिरंगा झंडा फहरा दिया। जिस कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया और उनकी पढ़ाई हमेशा के लिये रुक गयी पर उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ सर उठाने के गुनाह में गोली नहीं मारी क्योंकि उस समय यह कोई मजाक नहीं था। यहाँ से उनका पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ देश की आजादी के लिये समर्पित हो गया। इसके बाद वो अकसर ही अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने के लिये कुछ ऐसा काम जरूर करते जिससे उनकी जान खतरे में पड़ जाती, जैसे कभी वो डांकबंगलों में तोड़फोड़ कर देते, संचार के तारों को काट देते जिससे ब्रिटिश फौज का आपसी संपर्क कट जाता या किसी गोरे के साथ उलझ पड़ते। इन सब में उनका साथ देने वाले उनके परममित्र स्व. श्री प्रेम सिंह बिष्ट, स्व. श्री पान सिंह नेगी व स्व. श्री हीरा लाल साह भी शामिल थे। बंशीधर बेहद क्रोधी स्वभाव के थे। बात-बात में मरने मारने के लिये तैयार रहते और कभी किसी की गलत बात सहन नहीं कर पाते।

उनकी इसी आदत के कारण उनके पिता बाबू राम कंसल उनको महात्मा गांधी जी के पास ले गये। तब गांधी जी नैनीताल आये थे और वहीं से भवाली जाने वाले थे। बाबू राम कंसल ने उन्हें गांधी जी से मिलाते हुए कहा कि `यह मेरा बेटा है बंशीधर। आजादी के लिये समर्पित है पर बहुत ही क्रोधी स्वभाव का है। कभी-कभी मुझे डर लगता है कि यह गलत रास्ते पर न चला जाये। इसलिये मैं इसे आपकी सेवा में लाया हूँ। आप ही बतायें मैं क्या करूँ ?´ गांधी जी ने शांत मुद्रा में हंसते हुए कहा कि `कम से कम डरपोक तो नहीं है अपने विरोध को खुल कर सामने तो रखता है। तुम इसे मेरे साथ वर्धा आश्रम भेज दो। मुझे पूरी उम्मीद है कि इसके स्वभाव में परिवर्तन जरूर आयेगा।´ उसके बाद बंशीधर कंसल गांधी जी के साथ वर्धा आश्रम चले गये और 2 साल तक वहीं पर रहे। वहाँ से उनकी गांधीवादी पढ़ाई की शुरूआत हुई। वर्धा आश्रम तब हर तरह के स्वतंत्रता से जुड़े आंदोलन का मुख्य गढ़ हुआ करता था। वहाँ पर रह कर बंशीधर कंसल ने गुस्से में काबू पाना तो सीखा ही साथ ही उनका देश के लिये समपर्ण भी बढ़ता चला गया। वर्धा आश्रम में उन्होंने देखा कि किसी तरह का कोई भेदभाव, छुआछूत नहीं है। वहाँ का नियम था कि जो उस दिन पाखाना साफ करता था वही रसोई भी बनाता था ताकि किसी के मन में काम को लेकर बड़े-छोटे की भावना घर न कर जाये। इस माहौल का बंशीधर कंसल के ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने ताउम्र इस बात को अपने मन में बैठाकर रखा। जब बंशीधर कंसल वर्धा से वापस आये उनके स्वभाव में काफी बदलाव आ गया था और वह बेहद शांत हो गये थे परन्तु अपने विरोध को वह अभी भी खुल कर सामने रखते और सत्य के लिये हमेशा डटे रहते।
अब बंशीधर कंसल की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती गयी और अंग्रेज उनसे इतने अधिक नाखुश हो गये कि उन्होंने उनको मोस्ट वांटेड बना दिया और उनके खिलाफ वारंट निकाल कर अंडर सेक्शन 129 डी.आई.आर. (डिफेन्स इंडिया रूल) के तहत उनको 27-07-1942 को गिरफ्तार कर लिया। उनका उस समय अंग्रेजों पर इतना अधिक आतंक था कि उनको पकड़ने के लिये आये थानेदार स्व. ईश्वरी दत्त जोशी ने उनको कपड़े तक बदलने की मौहलत नहीं दी और उनकी कनपटी में पिस्तौल रख कर सीधे गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया।

बरेली जेल में उनके साथ काफी विभत्स व्यवहार किया गया। उन्हें बहुत मारा-पीटा जाता और खाना भी ढंग से नहीं दिया जाता। जेल के दौरन ही वह मलेरिया से ग्रसित हो गये पर उनका इलाज नहीं किया गया। जेल में ही वह अपनी एक आंख की रोशनी भी हमेशा के लिये खो बैठे। इतने पर भी गोरों का अत्याचार उनके प्रति कम नहीं हुआ। हमेशा उन्हें प्रताड़ित करने के लिये नये-नये तरीके इस्तेमाल करते रहते। उन्हीं दिनों बरेली जेल में वहाँ के सुपरिटेंडेंट आने वाले थे। जेलर ने सभी कैदियों के लिये फरमान जारी किया था कि सबको उनके स्वागत में खड़े उठकर सलाम करना पड़ेगा। जब सुपरिटेंडट आये तब दूसरे कैदी तो खड़े हुए पर बंशीधर कंसल न तो खड़े हुए और न सलाम ही किया। जब जेलर ने उनसे गुस्से में कहा कि `तुमने हमारा हुक्म क्यों नहीं माना ?´ उन्होंने कठोर शब्दों में जेलर को कहा कि - `यदि मुझे तुम्हारा या तुम्हारे मालिकों का हुक्म ही मानना होता तो मैं जेल में नहीं होता।´ यह सुनकर जेलर का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और उसने बंशीधर कंसल को अलग बैरक में डाल दिया। एक दिन जब जेलर ने उनको डांठते हुए कहा कि `मैं तुझे ऐसा सबक सिखाउंगा कि सारा आजादी की नशा उतर जायेगा।´ तब बंशीधर कंसल ने बैरक से ही हाथ निकाल कर जेलर का हाथ जोर से मरोड़ा और अंदर पड़े बर्तन की तरफ इशारा करते हुए कहा कि `मैं तेरी नाक इस बर्तन से काट कर फांसी में चढ़ना पसंद करूंगा।´ उस दिन के बाद से उन्हें लोहे की बेड़ियों में जकड़ दिया गया और बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया गया। 06-11-1943 को जब इन्हें लगभग सवा साल के कारावास के बाद छोड़ा गया तो उनकी हालत मरणासन्न थी पर फिर भी वह आजादी के संग्राम में डटे रहे।

उनके परिवार का तब नैनीताल में बहुत शानदार कारोबार था पर सब स्वतंत्रता की आग में जल गया। अंग्रेजों ने इनके घर और व्यवसाय की कुर्की करवा दी। बंशीधर कंसल का पूरा परिवार रातों-रात सड़क पर आ गया। उसके बाद बंशीधर का पूरा परिवार भवाली में आकर बस गया। भवाली उस समय नैनीताल वालों का शमशान घाट हुआ करता था। यहाँ पर उन्होंने परिवार को पालने के लिये एक छोटी सी मिठाई की दुकान खोली। बाहर से तो ये मिठाई की दुकान थी पर इसमें नीचे एक भूमिगत कमरा बनाकर एक छापाखाना खोला था जिसमें उस समय के अनुसार साइक्लोस्टाइल मशीन लगायी थी। यहाँ से सारे स्वतंत्रता संग्राम संबंधित लेख तथा अन्य सर्कुलेशन हाथ से लिख कर छापे जाते फिर उसे सब जगह बांटा जाता। भवाली का उनका घर आजादी की बैठकों का मुख्य अड्डा ही बन चुका था। जो भी मीटिंग या प्लानिंग होती थी वो वहीं से होती। चूंकि परिवार के सारे पुरुष ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे इसलिये घर में सिर्फ महिलायें और बच्चे ही थे जिनको हमेशा ब्रिटिश फौज के दबाव में रहना पड़ता था। कई बार तो दुकान में काम करने वाले श्री मदन सिंह चिनवाल को गोरे सिपाही पकड़ कर बेरहमी से पीट भी देते थे।

बंशीधर कंसल एक बार सुभाष चन्द्र बोस से भी मिले, जब वह भवाली सेनेटोरियम में थे। उनसे मिल के वह उनको व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए पर उनका झुकाव हमेशा गांधी जी की तरफ ही रहा। उन्होंने गांधी को अपनी अंतरात्मा में बसा कर रखा और अपनी अंतिम सांस तक भी उनसे अलग नहीं हुए। उन्होंने हमेशा ही खादी के वस्त्रों का उपयोग किया और गांधी टोपी के बगैर वह कभी घर से बाहर नहीं निकले।


बंशीधर कंसल उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से थे जिन्होंने अपने स्वतंत्रता सेनानी होने का भी कोई लाभ नहीं लिया। उनको मिलने वाली 25 एकड़ भूमि को भी लेने से उन्होंने मना कर दिया था। उनके संबंध राजनीतिक लोगों के साथ बहुत अच्छे थे। इंदिरा गांधी व फिरोज गांधी से उनके बहुत आतमीय संबंध रहे। आजादी के बाद हुए राजनीतिक ह्रास से वे बेहद दु:खी रहे और हमेशा यही कहते थे कि `हमने ऐसे राज के लिये लड़ाई नहीं लड़ी थी। हमने तो स्वराज के लिये इतना सब किया।´ बंशीधर कंसल को 15 अगस्त 1972 में स्वतंत्रता के 25 वें वर्ष के अवसर पर श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा ताम्र पत्र भी भेंट किया गया है। वो हमेशा अपने आदर्शों और सत्य के मार्ग पर अड़े रहे और 15 सितम्बर 1978 को इस दुनिया से विदा हो गये।