Wednesday, March 10, 2010

मेरी बिनसर अभ्यारण्य की यात्रा - 3

अगले दिन साल की अंतिम सुबह थी और हम हिमालय के सामने थे। सूर्योदय के समय हिमालय देखने के लिये हम ने शाम से ही पूरे इंतज़ाम कर लिये थे। रैस्ट हाउस वालों से सूर्योदय का समय और जगह भी पूछ ली थी। उसी के अनुसार अलार्म लगा लिये। सुबह अलार्म बजते ही बगैर आलस किये उठे और सूर्योदय देखने चल दिये। अभी हल्का हल्का अंधेरा था और सूर्य की किरणें आती हुई दिखाई दे रही थी। पर उस जगह पर पहले से ही सैलानियों की भीड़ कैमरों, विडियो कैमरों के साथ जुटी हुई थी। जो जैसे भी संभव हो हिमालय के उस रूप को अपनी यादों में रखना चाहता थे और कुछ लोग उस नज़ारे को अपनी आंखों में ही समेट लेना चाहते थे। इसलिये एक टक हिमालय को देख रहे थे। अंत में सब को सब्र का फल मिला और एक शानदार सूर्योदय का नज़ारा सबकी आंखों के सामने था। सूर्य की पहली किरण हिमालय पर पड़ी और हिमालय लाल होने लगा। खटा-खट ढेरों कैमरे एक साथ खटकने लगे। सब लोग हिमालय को बस देखे जा रहे थे। यह वास्तव में सम्मोहित कर देने वाला नज़ारा था। हद से ज्यादा ठंडी के बावजूद भी सब वहां पर जमे रहे। कोई भी उस जगह से जाना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे सूर्य पूरा निकल आया और हिमालय भी अपने वास्तविक रूप में लौट आया। हम कुछ देर उस जगह पर टहले और फिर कॉफी पीने आ गये।
आज हमने फैसला किया था कि दोपहर के खाने से पहले हम उस फील्ड की ओर जायेंगे जिसे कल आते समय देखा था और दोपहर के खाने के बाद ज़ीरों पाइंट जायेंगे। इसलिये नाश्ता करने के बाद हम लोग फील्ड की ओर आ गये। मैं अपने साथ चिड़ियों की किताब और बाइनोक्यूलर भी ले गयी यह सोच कर कि शायद बहुत सारे पंछी देखने को मिल जायेंगे। पर मेरे लिये यह बेहद उदास कर देने वाला रहा कि मुझे आकाश में उड़ते हुए लैमरजियर के अलावा कोई परिंदे नहीं दिखे। सिर्फ उनकी आवाजें़ सुनाई दे रही थी। यह रास्ता काफी सुनसान सा था और सड़क पर चलने वाले हम पांच लोग। अचानक हमें जंगल से किसी जानवर की चिल्लाने की आवाज़ें आयी। हालांकि हमें लगा कि ये बार्किंग डियर है पर फिर भी एक डर सा बैठ गया क्योंकि जंगल के जानवरों को चाहे हम न देख पाये पर उनकी नज़र तो हम पर हर समय रहती ही है। खैर हमने फैसला यही किया कि आगे को ही बढ़ेंगे ही वैसा ही हमने किया। कुछ पैदल और चलने के बाद हम लोग फील्ड में पहुंच गये। इस फील्ड पर आज कुछ बच्चे खेल रहे थे।

 हम इस फील्ड के पास पहुंचे तो पता चला कि यहां पर एक प्राचीन शिव मंदिर भी था। यह मंदिर बिनेश्वर महादेव का है। इस मंदिर को 16वीं शताब्दी में चंद राजाओं द्वारा बनाया गया था। यहां एक बाबाजी थे, उन्होंने हमसे वहां आने का कारण पूछा। मेरे हाथ में किताब देख कर उनको यह भी महसूस हो रहा था कि हम शायद कोई शोध छात्र हैं और उस जगह किसी शोध कार्य के लिये आये हैं। खैर बाबाजी को बताया किताब तो बस ऐसे ही। पता नहीं उन्हें यकीन हुआ या नहीं पर बाबाजी थे तो पूरे हाइटेक। उन्होंने हमें अपना ई.मेल ऐड्रेस दिया और बोला कि हम उनसे मेल से सम्पर्क कर यहां के बारे में पता कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि वो इस जगह में काफी समय से रह रहे हैं और ये भी कहा कि वो हमें लेपर्ड भी दिखा सकते हैं क्योंकि उनको पता है कि वो किस जगह पर हैं। मेरा बाबाओं पर कभी भी विश्वास नहीं रहा जिसके चलते मैंने अपने साथ वालों से साफ तौर पर मना कर दिया। मेरा कहना बांकि लोगों ने मान लिया और बाबाजी को मना कर दिया। कुछ देर बाद हमने देखा बाबाजी ने अपना लैपटॉप का बैग उठाया बाइक पर बैठे और चल दिये।

मंदिर के दर्शन करने के बाद हम लोग कुछ देर फील्ड की ओर आ गये। फील्ड काफी बड़ा था। एक तरफ बच्चे खेल रहे थे कुछ देर हमने भी उनके साथ खेला फिर हम दूसरी ओर के फील्ड में गये और घास के उपर सो गये। सर्दियों की धूप में इस तरह सोने का कुछ और ही मजा होता है। हम करीब 1 घंटा यूं ही घास पर पड़े रहे और उसके बाद रैस्ट हाउस वापस आ गये क्योंकि फिर हमें ज़ीरो पाइंट की ओर भी जाना था।
दोपहर का भोजन करने के बाद हमने कुछ देर आराम किया और फिर कल वाले रास्ते में ज़ीरों पाइंट की ओर चले गये। यह इस जगह का सबसे उंचाई वाली जगह है। यहां से हिमालय की बहुत बड़ी श्रृंखला दिखायी देती है। यह रास्ता कच्ची सड़क वाला है जो दोनों तरफ जंगल से घिरा है। काफी ज्यादा पैदल चलने के बाद आज हम ज़ीरो पाइंट पहुंच ही गये थे। यहां एक वॉच टावर है जिसका इस्तेमाल जंगलों में चारों तरफ आग देखने के लिये किया जाता है। हालांकि इसमें चढ़ने की मनाही है पर फिर भी हम लोग इसमें चढ़ गये। एक माला ऊपर चढ़े ही थे कि अगले माले की सीढ़ियां बुरी तरह हिल रही थी और उनकी दिशा खाई की ओर थी। 

ज़रा भी पैर हिला तो सीधे खाई में इसलिये हम वापस हो लिये और हिमालय दर्शन के लिये बनी जगह पर चले गये। वहां से मैंने देखा कि एक सज्जन स्पीड से उस वॉच टावर के टॉप में पहुंच गये। मैंने अपने साथियों को कहा  - वो जिस अंदाज़ से चढ़ रहे हैं जरूर फौजी होंगे। इतने में ही बगल से आवाज़ आयी - वो मेरा बेटा है। हमने उनकी तरफ देखा। एक युवा बुजुर्ग हमसे कह रहे थे - मैं भी फौज में था और मेरा बेटा भी फौज में कर्नल है। उन्होंने हमें अपने फौज के कई सारे अनुभव बताये जिनमें की सियाचीन में उनके प्रवास के अनुभव भी शामिल थे। उनसे बात करके बहुत अच्छा लगा और उससे भी ज्यादा अच्छा यह था कि उम्र में हमसे बहुत बड़े होने के बावजूद उनका व्यवहार हमारे साथ काफी दोस्ताना रहा। वो काफी जिन्दादिल लगे।

अब दोपहर ढलने लगी थी। हम लोग वापस रेस्ट हाउस आने लगे। आते हुए हम एक पगडंडी कहीं दूसरी ओर जाती हुई दिखी और आदत से मजबूर हम लोग उस पर आगे बढ़ गये यह देखने के लिये कि आखिर यहां क्या है ? हमें यहां एक कॉटेज दिखाई दिया जिसके बाहर एक चपरासी था। हमने उससे पूछा तो उसने बताया कि ये फॉरेस्ट वालों का रैस्ट हाउस है। उस जगह आने का हमें एक फायदा यह हुआ कि शानदार सूर्यास्त देखने को मिल गया। वहां कुछ देर रुकने के बाद हम लोग वापस रैस्ट हाउस आ गये और कमरे में चले गये। ठंडी हद से ज्यादा थी सो रज़ाई ढक कर गप्पें मारने लगे। लगभग 8 बजे हम रात का खाना खाने डाइनिंग हॉल में आये। ठंडी का आलम यह था कि प्लेट में खाना पड़ते ही ठंडा हो जा रहा था। उस पर वहां गरमी का कोई भी साधन नहीं था। अंगुलियां बिल्कुल टेढ़ी हो रही थी। ठंडी में कांपते हुए हाथों से खाना निपटाया और वापस कमरे में आये। काफी देर तक गप्पें मारते रहे क्योंकि हमने तय कर रखा था कि रात 12 बजे का तो हर हाल में इंतज़ार करना ही है।

रात 12 बजे जब हम लोग अपने कमरे में उधम मचा रहे थे तभी बाहर से पटाखों की आवाज़ें सुनाई दी। बाहर निकल कर देखा टेरिस में कुछ सैलानी पटाखे चला कर नये साल का स्वागत कर रहे थे। हालांकि यह तरीका हम सब की पसंद का नहीं है पर उस समय लगा कि हमें भी उनके साथ जाना चाहिये सो उनके पास पहुंच गये। उस टीम में बड़े, बुजुर्ग, बच्चे सब शामिल थे इसलिये हम भी उनके साथ जमा देने वाली ठंडी में करीब एक-डेढ़ घंटे तक हंगामा करते रहे फिर सबको नये साल की शुभकामनायें देते हुए कमरे में वापस आ गये।

अगली सुबह नये साल की पहली सुबह थी और आज भी हम हिमालय के सामने थे पर आज नज़ारा उतना सुन्दर नहीं था जितना पहले दिन था। आकाश में हल्के-हल्के से बादल छाये थे और ठंडी तो हद से ज्यादा बढ़ी हुई थी। रात में इतना पाला गिरा था कि पूरी घाटी पाले से सफेद हो गयी थी। कुछ सैलानियों ने इसे देखा और बोले बर्फ पड़ी है और हमें भी समझा रहे थे कि बर्फ पड़ी है। हमें उन्हें समझाना पड़ा कि यह बर्फ नहीं है ओस है पर सर्दियों के मौसम में ये जम जाती है जिसे पाला कहते हैं, जो कि सर्दियों के मौसम में पहाड़ों होता ही है।

आज हमारा वापसी का दिन था इसलिये रैस्ट हाउस के मैनेजर से कह के हमने अपने लिये अच्छी सी टैक्सी मंगवा ली। नाश्ता किया और टैक्सी से वापस हो लिये... बिनसर में तो हम सभी बाहरी संपर्कों से दूर रहे इसलिये कुछ पता नहीं चला पर जब वापस पहुंचे तो पता चला कि सद्दाम हुसैन को फांसी लगा दी गई है। यह खबर दिल को उदास कर गई...