Tuesday, December 6, 2011

मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी ट्रेक


अभी कुछ दिन पहले ही मैं मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी के ट्रेक से बहुत सारी यादों और बहुत सारी तस्वीरों के साथ लौटी हूं। कई लोगों ने मुझे ब्लाॅग में वहां के बारे में लिखने को कहा था इसलिये एक बेहद ही छोटा सा यात्रा वृतांत ब्लाॅग में लगा रही हूं। विस्तार से लिखना मैं शुरू कर चुकी हूं इसलिये जल्दी ही विस्तार यात्रा वृतांत ब्लाॅग में लगाना शुरू कर दूंगी। 

कुछ तस्वीरें में वहां की पहले एक पोस्ट में लगा चुकी हूं कुछ और तस्वीरें अगली पोस्ट में लगाउंगी तब तक आप इसे पढि़ये और बताइये कि कैसा लगा ?

मुझे जब से ट्रेकिंग का चस्का चढ़ा था तब से ही मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी बेस कैम्प जाना सपना था और इस बार यह शानदार मौका मिल ही गया। हमारी ट्रेकिंग मुनस्यारी से शुरू होनी थी सो एक दिन पहले मैं पिथौरागढ़ पहुंची वहां एक रात रुक कर अगले दिन मुनस्यारी के लिये निकल गयी। पिथौरागढ़ से मुनस्यारी वाला रास्ता आजकल बहुत अच्छा लग रहा था। कई झरने इस रास्ते में दिखायी दिये और कुछ तो रोड के उपर भी गिर रहे थे। मैं शाम को 4 बजे मुनस्यारी पहुंची और जाकर अपने गाइड सेंडी और बांकी की टीम से मिली। 

अगली सुबह 10 बजे हमने धापा से ट्रेकिंग शुरू की। आज हमें 8 किमी. ट्रेक करना था। पहले हम पथरीले रास्ते से होते हुए जिमीगाड़ पहुंचे। यहां से एक पुल पार करते हुए लीलाम के लिये खड़ी चढ़ाई शुरू हो गयी। तेज धूप और वजन के साथ इस चढ़ाई को पार करना काफी थका देने वाला रहा पर घाटी की खूबसूरती और रास्ते में आने वाली गुफाओं में बैठने के कारण चढ़ाई थोड़ी आसान लगने लगी। रास्ता खतरनाक था और नीचे गोरी गंगा बह रही थी जो मिलम ग्लेशियर से निकलती है। छोटी सी गलती हमें गोरी में डालने के लिये काफी होती। खैर कुछ समय बाद हम अपने पहले पड़ाव लीलाम (1850 मी.) पहुंचे और टेंट लगा कर खाना बनाया। अब हल्की बारिश भी होने लगी थी। शाम को मैंने कुछ गांव वालों से बातें की पर थोड़ी निराशा हुई क्योंकि सब टल्ली पड़े थे। वहां से लौट कर खाना खाया और अपने टेंट में सोने चली गयी। अगले दिन हमने 16-17 किमी. का ट्रैक करना था।

सुबह हल्की ठंडी थी। ब्रेकफास्ट निपटा कर बोगडियार (2450 मी.) के लिये निकल गये। रास्ते में खूब बड़ी छिपकलियां फुदकती दिखायी दी। इस घाटी को जोहार घाटी कहते हैं। यहां के लोग खानाबदोश होते हैं और इनका काम व्यापार करना है। सर्दियों में ये गर्म इलाकों में आ जाते हैं। कई लोग अपने भेड़ों के साथ मुनस्यारी जाते हुए दिखायी दिये जिनसे मैंने बातें भी की। रास्ते में विशालकाय झरने दिख रहे थे और गोरी अपनी दहाड़ती हुई आवाज और तेज बहाव के साथ हमारे साथ चल रही थी। कई जगह काफी खड़ी चढ़ाई थी पर घाटी का नजारा बेहद खूबसूरत था। यहां बांस का घना जंगल भी दिखा और कई गुफायें मिली। करीब 1 बजे हम रंङगाड़ी होते हुए गरमपानी के चश्मे के पास पहुंचे। यहां कुछ देर पानी में पैर डाल कर थकान मिटाई लंच किया और आगे बढ़ गये। रास्ते में छोटी-छोटी झोपडि़या मिली जिनमें चाय-खाना तो मिलता ही है जरूरत पड़ने पर रहने का इंतजाम भी हो जाता है। रास्ता कई जगह पर टूटा हुआ था इसलिये हम कभी लम्बे रास्ते से या कहीं टूटे हुए रास्तों को ही जैसे-तैसे पार करके आगे बढ़े। शाम करीब 5.30 बजे हम बोगडियार पहुंचे। यहां गोरी के किनारे टेंट लगाये और खाने की तैयारी की। बोगडियार में थोड़ी ठंडी थी पर आसमान बेहद खूबसूरत लग रहा था। जल्दी खाना निपटा कर टेंट में सोने चले गये। अगली सुबह फिर हमें जल्दी ही ट्रेकिंग शुरू करनी थी।

सुबह ठंडी में ही ब्रेकफास्ट कर हम मर्तोली गांव (3430 मी.) के लिये निकल गये। मौसम अच्छा था और ताजगी के साथ हमने ट्रेकिंग शुरू की। शुरू में रास्ता अच्छा था पर फिर खतरनाक और खड़ी चढ़ाई वाला हो गया। रास्ते की खूबसूरती बरकरार थी। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, साफ नीला आकाश उसमें बादलों के तैरते हुए टुकड़े और गोरी के बहने का संगीत। इससे अच्छा नजारा कुछ और नहीं हो सकता था। कुछ देर बाद हम मापांग पहुंच गये। रास्ते में अभी भी विशाल झरने मिल रहे थे कुछ तो रास्ते के बीच में भी गिर रहे थे जिनमें से भीगते हुए निकलने में बड़ा मजा आ रहा था। एक तीखी चढ़ाई चढ़ने के बाद हम लास्पा गांव पहुंचे यहां एक झोपड़ी में बैठ कर खाना खाया, चाय पी और कुछ देर आराम कर आगे निकल गये। पेड़ अब गायब होने लगे थे। उनकी जगह बुग्यालों ने ले ली थी। यहां से हमें भूरे पहाड़ दिखने लगे थे। रास्ता अच्छा था और कभी गोरी के करीब जाता तो कभी उससे दूर हो जाता। यह रास्ता एक जगह पर पूरी तरह टूटा हुआ था जिसे मैंने सेंडी की मदद से जैसे-तैसे पार किया। 2-3 घंटे बाद हम रिल्कोट पहुंचे और यहां से मर्तोली गांव को बढ़ गये। अब शाम होने लगी थी और थकावट भी महसूस हो रही थी। मर्तोली के लिये हमें फिर से एक तीखी चढ़ाई चढ़नी थी जो उस समय बहुत अखर रही थी। जैसे-तैसे इसे पार किया पर अभी भी हमें करीब 6-7 किमी. और चलना था। मर्तोली गावं पहुंचने से पहले हमें बुग्याल दिखा जिसे पार कर अंधेरे में हम मर्तोली पहुंचे। गांव पहुंचने पर एक डरावना एहसास हुआ। लगा जैसे किसी भूतहा जगह पर आ गये हों जहां सारे मकान खंडहर पड़े हैं। इधर-उधर भटकने के बाद 2 लोग मिले जिनसे हमने टेंट लगाने की जगह पूछी। मर्तोली में बेहद ठंडी थी और आज हम करीब 22-23 किमी. चल कर बुरी तरह थके थे इसलिये खिचड़ी खाकर ही सोने चले गये। 

सुबह जब मैं अपने टेंट से बाहर आयी तो देखा पाले (फ्राॅस्ट) से सब सफेद हो रखा था और बेहद ठंडी थी। मैं कुछ ही दूरी पर बने नन्दा देवी के मंदिर और गांव को देखने चली गयी। नन्दा देवी जोहारियों की ईष्ट देवी हैं इसलिये हर गांव में उनका मंदिर जरूर होता है। मर्तोली गांव मर्तोली पीक के नीचे बसा है। गांव के मकान पत्थरों के थे जिनका आर्किटेक्ट पारम्परिक था पर लोगों के चले जाने के कारण अब ज्यादातर मकान खंडहर हो चुके हैं। कुछ परिवार जो बचे हैं वो आजकल मुनस्यारी जा रहे थे इसलिये गांव में सन्नाटा पसरा था। गांव में घूमने के बाद मैं वापस आयी और ब्रेकफास्ट करके गनघर की ओर निकलने की तैयारी शुरू की।

आज हमें 10 किमी. का ट्रेक कर गनघर (3328 मी.) पहुंचना था। मर्तोली से एक तीखा ढलान उतर कर पुल पार करते हुए बुर्फू पहुंचे। एक तीखी चढ़ाई के अलावा आज का रास्ता काफी अच्छा था। बीच में हमें बुग्याल मिलतेे रहे जिनमें पीली घास के झुरमुट लगे थे। यहां बहुत तेज हवायें चल रही थी जिसके कारण  चलने में परेशानी हो रही थी। गोरी अभी भी हमारे साथ में थी। हम 2 बजे गनघर पहुंचे। जब हम यहां पहुंचे औरतों ने मेरे हाथ में कैमरा देख कर मोबाइल में गाना लगा कर नाचना शुरू कर दिया। यहां भी बिजली नहीं है पर सोलर लाइट की वजह से थोड़ा बहुत काम चल जाता है। जगह ढूंढ कर हमने टेंट लगाये। आज आराम से खाना बनाया और अगले दिन मिलम ग्लेशियर (3500 मी.) जाने का प्लान बनाया। 

सुबह करीब 6 बजे हम मिलम ग्लेशियर के लिये निकल गये। मिलम ग्लेशियर एशिया का सबसे बड़ा ग्लेशियर है। रास्ते में पाछू नदी और पाछू गांव से निकलते हुए लकड़ी के बने खरतनाक पुल को पार कर मिलम की ओर बढ़े। यहां तिब्बत से आने वाली ग्वांख नदी और गोरी का संगम भी है। मिलम का रास्ता ठीक था पर एक बेहद तीखी खड़ी चढ़ाई ने हालत खराब कर दी। पर हीदेवल पीक के नजारे ने थकान को गायब कर दिया। खैर यहां से उबड़-खाबड़ पथरीला रास्ता पार करते हुए हम आगे बढ़े तो ग्लेशियर  दिखना शुरू हो गया। मेरा सपना पूरा हो रहा था। उस समय मैं क्या महसूस कर रही थी शब्दों मे बता पाना मुश्किल है पर मुझे ग्लेशियर के पास जाना था और गोरी का सोर्स देखना था सो हम आगे निकल गये। हम हजारों वर्ष से इकट्ठा होकर सख्त हो चुकी बर्फ के ऊपर थे। यह जगह किसी स्टोन क्रेशर से कम नही थी। जहां तहां सिर्फ पत्थरों के ढेर थे और इन्हीं के ऊपर से रास्ता बना के हम आगे बढ़े और ग्लेशियर के पास पहुंचे। ग्लेशियर से पानी टपक रहा था और ऊपर से पत्थर गिर रहे थे इसलिये यह जगह बेहद खतरनाक थी। कुछ देर यहां रुकने के बाद हम गोरी का मुहाना देखने निकल गये। जिसके लिये हमें काफी लम्बा रास्ता पत्थरों के ढेरों से तय करना पड़ा। यहां आकर प्रकृति की ताकत का अहसास हो रहा था। गोरी के मुहाने के पास पहुंचे तो देखा वहां इतने ज्यादा पत्थर गिर रहे थे कि ज्यादा रुकना कठिन था इसलिये स्नाउट देखकर फौरन वापस लौट लिये। इस उबड़-खाबड़ रास्ते को पार कर हम ढंग के रास्ते पर पहुंचे। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद मिलम गांव की ओर निकल गये। यह गांव 500 परिवारों का है पर अब यहां भी कुछ ही परिवार रह गये हैं। यहां से हम वापस गनघर आ गये। 

अगले दिन हम नन्दा देवी ईस्ट बेस कैम्प (4297 मी.) के लिये निकल गये। यहां जाने के लिये हमें बेहद तीखी चढ़ाई चढ़नी पड़ी पर बीच-बीच में बुग्याल और पानी के सोते थोड़ा थकावट कम कर रहे थे। हमें नीचे से ही नन्दा देवी का नजारा दिखने लगा था। जैसे-जैसे इसके नजदीक पहुंचे हमें बुरांश की झाडि़या और भोज पत्र के पेड़ दिखने लगे। बेस कैम्प में पहुंचने पर हम सुस्ता कर बैठ गये। यहां से पाछू नदी निकलती है जो नीचे जाकर गोरी में ही मिल जाती है। जिस समय हम यहां पहुंचे नन्दा देवी के ऊपर बादल छाने लगे थे पर फिर भी हमें अच्छा नजारा मिल गया। हमारा मिशन यहां पूरा हो चुका था। 
10 दिन के टेªक में हम 155-160 किमी. पैदल चले। मैं इस सफर में एक अलग ही जीवन शैली और प्राकृतिक सुन्दरता से रुबरू हुई जिसे छोड़ कर वापस लौटना बुरा लग रहा था पर वापस तो आना ही था... कुछ समय यहां बिताने के बाद वापसी का सफर तय करते हुए बुर्फू लौट आये। बुर्फू से नाहरदेवी-गरमपानी-लीलाम होते हुए वापस मुनस्यारी। 

विस्तार से जल्दी ही पोस्ट लगाना शुरू करूंगी।

Tuesday, November 15, 2011

नैनीताल का तीसरा फिल्म महोत्सव

युगमंच और जन संस्कृति मंच के मिलेजुले प्रयासों से नैनीताल में 30 अक्टूबर से 1 नवम्बर तक ‘प्रतिरोध का सिनेमा 3’ का आयोजन किया गया। इस बार का फिल्म महोत्सव प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मणि कौल, क्रांतिकारी नाट्यकर्मी और जन संस्कृति मंच के संस्थापक अध्यक्ष गुरुशरण सिंह तथा प्रसिद्ध टीवी पत्रकार कवि कुबेरदत्त की याद में हुआ। पिछले तीन वर्षों से लगातार आयोजित किये जा रहे इस फिल्म महोत्सव का उद्देश्य जनता को इस तरह की फिल्में दिखाने का रहता है जिसे मेन स्ट्रीम सिनेमा में नहीं दिखाया जाता है। इसमें दिखायी जाने वाली तमाम फिल्में, डाॅक्यूमेंट्री या व्याख्यान किसी न किसी रूप में समाज के साथ जुड़े रहते हैं।

पहले दिन का सत्र उद्घाटन समारोह के साथ शुरू हुआ जिसमें अपने अध्यक्षीय संबोधन में सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल ने कहा कि आज के सिनेमा और प्राचीन समय में की जाने वाली कविताओं में एक समानता है कि दोनों ही बिम्बों द्वारा बनते हैं। उन्होंने कहा कि आज भूमंडलीकरण के दौर में इस तरह के आयोजनों की बहुत आवश्यकता है। इस दौरान एक स्मारिका का भी उद्घाटन किया गया। इसी सत्र में उड़ीसा के युवा चित्रकार प्रणव प्रकाश मोहंती के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया गया। प्रणव अपने वित्रों को बाजार में बेचने से सख्त परहेज करते हैं और पूरी ईमानदारी के साथ अपनी कला के लिये समर्पित हैं। उद्घाटन सत्र में कुन्दन शाह निर्देशित फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ का प्रदर्शन किया गया। 1983 में बनी यह फिल्म उस समय के पत्रकारों के चरित्र को सामने रखती है। हास्य अंदाज़ में कहे गये तीखे सटायर इस फिल्म को आज भी उतना ही जरूरी बनाते हैं जितनी की ये उस दशक में रही थी।

फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरूआत बच्चों के सत्र से हुई जिसमें रामा मोंटेसरी स्कूल नैनीताल के बच्चों द्वारा लोक गीतों पर आधारित नृत्यों से हुई जिसे दर्शकों और खास तौर पर बच्चों द्वारा काफी सराहा गया। इसके बाद आशुतोष उपाध्याय ने बच्चों को धरती के गर्भ की संरचना को कुछ आसान से प्रयोगों द्वारा खेल-खेल में ही समझा दिया। जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया। इसके बाद पंकज अडवानी निर्देशित बाल फिल्म ‘सण्डे’ का प्रदर्शन किया गया। इस सत्र की सबसे अच्छी बात यह रही कि इसमें ढेर सारे बच्चे दर्शक के रूप में मौजूद थे। कुछ बच्चों ने पेंटिंग भी बनाई। दूसरा सत्र लघु फिल्मों का था जिसमें लुईस फोक्स निर्देशित ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’, बर्ट हान्स्त्र निर्देशित ‘ग्लास’, ‘ज़ू’, अल्ताफ माजिद निर्देशित ‘भाल खबर’, राजीव कटियार निर्देशित ‘दुर्गा के शिल्पकार’, अभय कुलकर्णी निर्देशित ‘मेरे बिना’ के साथ पाकिस्तानी म्यूजिक वीडियो ‘लाल बेंड’ का प्रदर्शन किया गया। ‘द स्टोरी आॅफ स्टफ’ एक ऐसी डाॅक्यूमेंटीª है जिसमें आज के बाजारवाद की चालाकियों को बहुत गहराई से दिखाया गया है। ‘मेरे बिना’ फिल्म आत्महत्या विषय पर बनी है। जिसमें युगमंच से जुड़े ज्ञान प्रकाश मुख्य भूमिका में हैं।

तीसरे सत्र की शुरूआत प्रभात गंगोला के व्याख्यान व्याख्यान ‘भारतीय सिनेमा में बैक ग्राउंड स्कोर का सफर’ पर आधारित था। उन्होंने चित्रों और छोटी-छोटी वीडियो फिल्मों द्वारा भारत की पहली मूक फिल्म से लेकर पहली बोलती फिल्म और फिर वहां से आज तक के फिल्मों का सफर कराया और साथ ही कई तकनीकि बातों से आम लोगों को रूबरू भी कराया।

दूसरा व्याख्यान उड़ीसा सूर्य शंकर दास ने प्रस्तुत किया जो उड़ीसा में विकास की त्रासदी पर आधारित था। उन्होंने बताया कि किस तरह इन विडियो को रिकाॅर्ड करने में उनके एक साथी रघु को गोली भी लग गयी थी और शासन द्वारा उसे कई फर्जी केसों में उलझा दिया गया है। उन्होंने इन विडियो द्वारा पास्को, वेदांता जैसी कंपनियों की असलियत सबके सामने लाये कि कैसे वो उड़ीसा के नियामगिरी इलाके को बर्बाद करने पर तुले हैं। सूर्या बताते हैं कि उनकी इन खबरों को कोई भी मीडिया अपने चैनलों पर नहीं दिखाता है जिस कारण उन्होंने सारे विडियोस् यू ट्यूब पर डालने शुरू कर दिये। हालांकि इनमें कमेंट्स ज्यादा नहीं होते हैं पर जिस तरह इन विडियोस की व्यूवरशिप बढ़ रही है और लोगों की इंनडाइरेक्ट सर्पोट मिल रहा है उससे अच्छा लगता है।

तीसरा व्याख्यान इंद्रेश मैखुरी द्वारा उत्तराखंड में बड़े बांधों द्वारा विनाश के कुचक्र पर था। उन्होंने बताया कि विकास के नाम उत्तराखंड की सभी बड़ी नदियों पर 50 से ज्यादा बड़े बांध बनाये जा रहे हैं जिनमें मुख्य रूप से पैसे का खेल है।


तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत मणि कौल निर्देशित फिल्म ‘दुविधा’ से हुई। 60 के दशक में बनी यह फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस फिल्म की फोटोग्राफी ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। दूसरा सत्र महिला फिल्मकारों का था जिसमें निलिता वाच्छानी निर्देशित सब्जी मंडी के हीरे, रीना मोहन निर्देशित कमलाबाई, फै़ज़ा अहमद खान निर्देशित ‘सुपरमैन आॅफ मालेगांव’ और इफ्फत फातिमा निर्देशित ‘व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू किस्रेंट मून ?’ दिखायी गयी। ‘सब्जी मंडी के हीरे’ बसों में जाकर सामान बेचने वालों की कहानी है। इन लोगों को पता होता है कि इनका सामान कोई नहीं लेगा पर फिर भी अपनी पूरी मेहनत और कला का प्रदर्शन कर कुछ न कुछ सामान बेच ही लेते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका सपना होता है मुम्बई जाकर हीरो बनने का पर वो ऐसा कर नहीं सके। ‘कमलाबाई’ प्रथम मूक फिल्म और मराठी नाट्य मंच की अभिनेत्री कमला बाई के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म द्वारा रीना मोहन ने शुरूआती दौर के सिनेमा में कमलाबाई के महत्व को तो दिखाया ही था पर उनके अनुभवों को और उनकी निजी जिन्दगी से भी लोगों को रुबरु कराया।


‘मालेगांव का सुपरमैन’ मालेगांव नाम के छोटे से कस्बे में रहने वाले फिल्म निर्माण के शौकीन एक ग्रुप की कहानी है। ये सुपरहिट फिल्मों की पैरोडी बनाते हैं जो उनके लिये धार्मिक तनावों और आर्थिक कठिनाइयों से भागने का मजेदार रास्ता है। यह फिल्म सुपरमैन की शूटिंग की तैयारियों पर केन्द्रित है। अपने सीमित संसाधनों के चलते ये लोग किस तरह से अपने देशी जुगाड़ को आधुनिक तकनीक से जोड़ते हैं और उससे जो व्यंग्य निकलता है वो इस फिल्म को बेहतरीन फिल्म की श्रेणी में डाल देता है। इस फिल्म के बाद दिखायी गयी फिल्म सन 2009 में ‘आधी विधवाऐं’ नाम से चल रहे अभियान के अंतर्गत कश्मीर में लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन (।च्क्च्) के सहयोग से बनाई गयी। यह ऐसी औरतों की कहानी है जिनके घरवाले आज तक लापता हैं। इनमें अधिकांश लापता होने के लिये बाध्य पीडि़तों की मांयें और बीवियां हैं। ‘आधी विधवाएं’ अभियान की शुरूआत 2006 में हुई। यह फिल्म वादों, हिंसा और जख्मों के भरने जैसे मुद्दों को सामने लाती है। मुगलमासी कश्मीर के श्रीनगर जिले के हब्पाकदल नाम की जगह पर रहती थी। पहली सितम्बर 1990 को उनका इकलौता बेटा नाजिर अहमद तेली लापता हो गया और फिर कभी नहीं मिला। वह अध्यापक था।

तीसरे सत्र की शुरूआत अपल के व्याख्यान ‘नदियों के साथ’ से हुई। इसमें अपल ने अफ्रीका की जाम्बेजी से लेकर भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा और गोमती की रोमांचक यात्रा करायी और इनकी बदलती स्थितियों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने लोगों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि किस तरह से नदियों के किनारे पल रही सभ्यता अब धीरे-धीरे बर्बाद होने लगी है। इस सत्र का अंतिम व्याख्यान सुप्रसिद्ध ब्राॅडकास्टर के. नन्दकुमार का था। जिन्होंने ब्राडकास्टिंग की दुनिया में कैमरे और अन्य उपकरणों के विकास को उन्होंने कई छोटी-छोटी विडियो फिल्मों के माध्यम से समझाया।

फैस्टिवल की अंतिम प्रस्तुति क्रांतिकारी धारा के कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी पर बनी इमरान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ थी। इस वृत्त चित्र ने विद्रोही जी के व्यक्तित्व को उभार कर सामने ला दिया। विद्रोही जी अपनी अनोखी शैली और अद्भूद काव्य क्षमता के कारण लोगों के बीच में पहचाने जाते हैं। साधारण से दिखने वाले इस कवि ने जब अपना काव्य पाठ शुरू किया तो पूरा हाॅल वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। हाॅल में उपस्थित युवा और बुजुर्ग सबने जमकर विद्रोही जी की तारीफ की। विद्रोही जी के इस अद्भुद काव्य पाठ के साथ ही यह नैनीताल के तीसरे फिल्म उत्सव का समापन हो गया।

Monday, October 17, 2011

My Milam Glacier And Nanda Devi Base Camp Trek

Friends, just few days ago I am back from Milam Glacier (3500 m.) and Nanda Devi East Base Camp (4297 m.)Trek… Milam Glacier is a snout of Gori Ganga and in our whole trek; Gori was following us with her roaring voice and huge rapids. In 10 days we trekked around 155-160 km. I got lots of experiences from this high altitude trekking which I will share with you all next time…This valley known as Johar Valley. Here I came across with the different sort culture and life style and natural beauty but this time I am sharing some pictures of my trekking… I am still in a spell of the beauty of this valley…

Thursday, September 1, 2011

Id in Nainital

Colours of Id in Nainital

Tuesday, July 26, 2011

एक छोटी सी ट्रेकिंग

कल मैं नैनीताल से कुछ दूर एक गांव की ओर ट्रेकिंग पर निकल गयी थी। हालांकि मौसम धुंध भरा था पर तेज बारिश नहीं थी इसलिये जाने में बुराई तो नहीं थी पर ये जरूर था कि शायद घने धंुध में अच्छी तस्वीरें न मिलें पर फिर भी कभी-कभी धुंध में भी कुछ तस्वीरें मिल ही जाती हैं।

जहां ट्रेकिंग के लिये गई वहां एक छोटा सा गांव था। गांव को पार करते हुए जब जंगल की तरफ निकले तो कुछ ऐसा दिखा जिसकी उम्मीद नहीं थी। उंची पहाड़ी पर स्थानीय मंदिर, जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो भूमिया देव का मंदिर है जो गांव की भूमि और जानवरों की रक्षा करते हैं। इस मंदिर से कुछ आगे निकले तो एक बेहद पुराना खंडहर दिखायी दिया। सूनसान जंगल में घने धुंध के बीच वो खंडहर भूतहा इमारत जैसा लग रहा था। जब उसके पास जाकर देखा तो वो ब्रिटिश जमाने की भव्य इमारत लगी जो अब बुरी तरह टूट चुकी थी और इसके अंदर घनी झाडि़यां उग आयी थी। जिस कारण इसके अंदर जाना तो संभव नहीं हुआ पर बाहर से इसकी कुछ तस्वीरें जरूर ले ली। इस खंडहर के बारे में कोई भी जानकारी किसी से नहीं मिल पाई सो कुछ बता पाना तो मुश्किल है पर हां इतना जरूर है कि यह खंडहर लगभग 100 साल से ज्यादा पुराना तो होगा ही। यहां पर इसी छोटी सी ट्रेकिंग की कुछ तस्वीरें...








Monday, July 18, 2011

Nainital In Rain

Nainital In Rain

Monday, May 16, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा - 2


जिस समय तक हम दोस्त की बहन के घर पहुंचे हमें 4.30 बज गये थे और ठंडी भी बहुत बढ़ गयी थी। घर में दीवाली की रौनक थी जिसमें हम भी शामिल हो गये और हमारा पैदल बाजार आने का प्लान केंसिल हो गया। रानीखेत में भी शाम के समय दीवाली की काफी रौनक थी पर मुझे नैनीताल के मुकाबले थोड़ा कम ही लगी क्योंकि बहुत ज्यादा पटाखों का शोर नहीं सुनाई दे रहा था जो कि हर लिहाज से बहुत अच्छा था। हमने बरामदे में खड़े होकर कुछ देर तक दीवाली का नजारा देखा पर ठंडी से बुरा हाल हो जाने के कारण अंदर आ गये और गप्पें मारने लगे। अगली सुबह करीब 9 बजे हमें वापस नैनीताल लौटना था सो हमने खाना खाया और सो गये।





सुबह थोड़ी आलस भरी थी क्योंकि अच्छी खासी ठंडी थी। थोड़ा आलस करने के बाद हम उठे और बाहर बरामदे में आ गये। यहाँ से हिमालय का नजारा दिखायी दे रहा था पर उसके ऊपर बादल छाये थे। खैर हिमालय का नजारा देखते हुए गुनगुनी धूप में काॅफी पीने का अलग ही मजा होता है जिसका हमने पूरा फायदा उठाया। हमें आज 9 बजे रानीखेत से निकलना था क्योंकि फिर मेरी दोस्त के भाई को दिल्ली जाना था। इसलिये हम नाश्ता कर के ठीक 9 बजे वहाँ से निकल गये। सुबह की धूप में रानीखेत अलग ही मूड में लग रहा था। जब हम वापस लौट रहे थे तब अचानक ही हमने झूला देवी के मंदिर जाने का फैसला कर लिया और गाड़ी वहाँ को मोड़ ली।


यह मंदिर रानीखेत से 7 किमी. दूरी पर चैबटिया जाने वाले रास्ते में है। जब हम इस रास्ते पर बढ़े तो चैबटिया का घना जंगल शुरू हो गया। इस जंगल में कई प्रजाति के पेड़-पौंधे हैं। जंगलों के बीच से जाती हुई सड़क बहुत अच्छी लगती है। झूला देवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि पहले यहाँ काफी घना जंगल था और इसमें कई जंगली जानवर थे जो ग्रामीणों पर हमला कर उन्हें मार देते थे। ग्रामीणों ने मां दुर्गा से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। मां दुर्गा ने एक ग्रामीण के सपने में आकर इस स्थान पर अपना मंदिर बनाने के लिये कहा। जब यहाँ पर खुदाई की गई तो मां दुर्गा की मूर्ति निकली जिसे इसी जगह पर स्थापित कर दिया गया। बाद में देवी ने फिर सपने में आकर इस मंदिर में झूला लगाने के लिये कहा जिसके बाद से इसे झूला देवी का मंदिर कहा जाने लगा। इस मंदिर के चारों ओर अनगिनत छोटी-बड़ी घन्टियां टंगी हुई हैं जिन्हें श्रृद्धालु आकर मंदिर में चढ़ा जाते हैं।

यहाँ से फिर हम नैनीताल के लिये वापस लौट लिये। जब हम वापस लौट रहे थे तो अचानक गाड़ी में जोर-जोर से झटके लगने लगे। पीछे बैठे होने के कारण मुझे झटके ज्यादा जोर से लग रहे थे। मैंने अपने दोस्त को गाड़ी की स्पीड कम करने को कहा। उसने बोला उसने स्पीड कम ही रखी है। खैर कुछ देर ऐसे ही चलता रहा और फिर झटके और जोर से लगने लगे। मैंने स्पीड कम करने के लिये कहा तो उसने बोला कि स्पीड तो कम ही है। कुछ देर बाद जब बुरी तरह झटके लगने लगे तो मैंने गुस्से के साथ उसे बोला कि वो गाड़ी रोक के मुझे यहीं उतार दे मैं किसी दूसरी टैक्सी से आ जाउंगी तो उसने मुझे गाड़ी की स्पीड देखने को बोला जो 20-25 की स्पीड पे चल रही थी। मुझे यकीन नहीं हुआ कि इतनी कम स्पीड में इतने झटके क्यों लग रहे हैं। हमने गाड़ी रोक कर जब टायर देखे तो पता चला कि पीछे वाला टायर बुरी तरह फट गया था।


हालांकि रोडसाइड बोर्ड यात्रा के सुखद होने और प्रकृति की सुन्दरता को इन्जाॅय करने की कामना कर रहे थे पर फिर भी हमारा अच्छा खासा सफ़र अंग्रेजी वाला सफर बन गया था पर अच्छा यह था कि हमारे पास स्टेपनी रखी हुई थी सो हमने गाड़ी साइड लगा कर टायर बदलना शुरू कर दिया। जब हम टायर बदल रहे थे तो आने-जाने वाले लोग हमें ऐसे देख रहे थे जैसे हम पता नहीं क्या कर रहे हों...कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो ये दिखा रहे थे कि अब तो हमें इस महान मुसीबत से बस वो ही बचा सकते हैं और कुछ लोग अपनी फ्री एडवाइस देने से भी बाज़ नहीं आये। खैर हमने टायर बदला और आगे निकल लिये। इसके आगे का रास्ता अच्छे से बीता पर बेचारे टायर की हालत देख कर बहुत अफसोस हुआ और साथ में अपनी अच्छी किस्मत पर खुशी भी हुई की गाड़ी पलटी नहीं। इस बार समय बहुत कम होने के कारण मैं रानीखेत को बहुत अच्छे से नहीं देख पायी इसलिये एक बार फिर रानीखेत जाना तो तय है...

समाप्त

Monday, May 9, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा-1


रानीखेत की मेरी यह यात्रा 5-6 नवम्बर 2010 को दीवाली वाले दिन की है। हमेशा की तरह मेरी यह यात्रा भी अचानक ही बनी और ऐसी यात्रायें हमेशा बहुत मजेदार रहती हैं। हुआ कुछ ऐसा कि दीवाली से एक दिन पहले मेरी दोस्त ने बोला कि वो और उसका भाई दीवाली मनाने अपनी बहन के पास रानीखेत जा रहे हैं। उसने मुझे भी साथ चलने के लिये बोला जिसे मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया।

अगली सुबह दीवाली वाले दिन हम 11 बजे रानीखेत के लिये निकल गये। रास्ते में हमें कई जगह ट्रेफिक जैम का सामना करना पड़ा जिस कारण देरी भी हो रही थी। हमें भवाली पहुंचने में ही काफी समय लग गया पर भवाली से आगे फिर इतना बुरा हाल नहीं था। हमने तय किया कि गरमपानी में रुक कर रायता-पकौड़ी खायेंगे। गरमपानी अपने स्पेशल तरह के तीखे रायते और पकौड़ी के लिये प्रसिद्ध है। मेरी दोस्त का भाई रायते से ऐसा बेहाल हुआ कि काफी देर तक बेचारा आंख और नाक पोछते हुए ही गाड़ी चलाता रहा। कुछ समय वहाँ रुकने के बाद हम आगे निकल गये और रानीखेत जाने के लिये खैरना पुल को पार किया। रानीखेत वाला रास्ता मेरे लिये नया था। यह रास्ता मुझे अल्मोड़ा वाले रास्ते से ज्यादा अच्छा लगा। यह रास्ता भी नदी के साथ-साथ ही चल रहा था। इसके किनारे के खेत और गांवों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। आजकल खेतों में सरसों और धान लगे थे जो खेतों को बहुत आकर्षक बना रही थी। हमने कुछ देर गाड़ी रोकी और इस घाटी का नजारा लिया। मौसम सुहावना था इसलिये गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा भी लग रहा था। कुछ देर धूप का मजा लेने के बाद हम आगे बढ़ गये। रास्ते में हमें कई छोटे-छोटे गाँव दिखायी दिये। सड़कों के किनारे बनी छोटी-बड़ी बजारें भी दिखायी दे रही थी जिनमें जरूरत का सारा सामान मिल जाता है।





जैसे-जैसे हम रानीखेत के नजदीक पहुंचते गये जमीन की टोपोग्राफी आकर्षित करने लगी। जिसे लाल रंग की मिट्टी और ज्यादा आकर्षक बना रही थी। रानीखेत की समुद्रतल से ऊँचाई 1,869 मीटर है। मान्यता है कि यहां के राजा सुखहरदेव की पत्नी रानी पदमिनी को यह जगह बेहद पसंद थी इसलिये इस जगह का नाम भी रानीखेत पड़ गया। सन् 1869 में ब्रिटिशर्स ने यहाँ कुमाऊँ रेजीमेंट का हैडक्वार्टर बनाया। रानीखेत कैन्टोलमेंट क्षेत्र है इसलिये यह जगह आज भी बेहद व्यवस्थित है। जब हम रानीखेत पहुंचे तो हमने फैसला किया कि हम ताड़ीखेत होते हुए बिनसर महादेव के मंदिर जायेंगे और गाड़ी को ताड़ीखेत वाले रास्ते पर मोड़ लिया।



ताड़ीखेत बहुत अच्छी जगह है। यहाँ का रास्ता भी घने जंगलों के बीच से होता हुआ जाता है। यहाँ से हिमालय का भी शानदार नजारा दिखता है। करीब एक-डेढ़ घंटे में हम बिन्सर महादेव के मंदिर पहुंच गये। यह मंदिर काफी भव्य है। मान्यता है कि यहाँ शिव ध्यान करने के लिये आये थे। शिव के अलावा यहाँ माँ सरस्वती और ब्रह्या की मूर्तियां भी हैं। अपने वास्तु के लिये प्रसिद्ध इस मंदिर का निर्माण 9वीं सदी में राजा कल्याण सिंह ने मात्र एक दिन में ही किया था। मान्यता है कि बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन महिलायें हाथ में दिया जला कर बच्चे की कामना करती है। यह मंदिर चारों ओर से घने जंगल से घिरा हुआ है और इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 8,136 फीट है। यहां ठंडी भी बहुत ज्यादा थी। यह मंदिर काफी साफ-सुथरा था और यहाँ एक संस्कृत विद्यालय भी चलता है। जब हम मंदिर से बाहर निकले तो आंगन में लकडि़यों की आग जल रही थी। ठंडी होने के कारण हम आग के पास चले गये। कुछ देर रुकने के बाद हम यहाँ से वापस लौट गये।


जब हम वापस रानीखेत पहुंचे तो शहर में प्रवेश करने से पहले चुंगी देनी पड़ी जिसके बाद ही हमें अंदर प्रवेश करने दिया गया। रानीखेत में आज भी पुराने समय के कोठियां, बंग्ले और मैदान दिख जाते हैं। आर्मी एरिया होने के कारण जगह काफी साफ है और किसी भी तरह का अवैधानिक निर्माण यहाँ नहीं हुआ है। यही कारण है कि इसकी खूबसूरती आज भी बनी हुई है। जब हम रानीखेत बाजार पहुंचे तो बाजार में दीवाली के कारण बहुत चहल-पहल थी और लगभग हर तरह का सामान बिक रहा था बस जेब में पैसा होना चाहिये...

जारी है...

Monday, May 2, 2011

मेरी आगरा यात्रा

मेरी आगरा यात्रा के दौरान आगरा फोर्ट की कुछ और यादें






आगरा फोर्ट से ताजमहल का नजारा


Friday, March 25, 2011

अमृतसर की कुछ तस्वीरें


मेरी अमृतसर यात्रा की कुछ यादें











Tuesday, March 15, 2011

कुछ तस्वीरें ताजमहल यात्रा की

इस बार जब घूमने निकली तो जाते-जाते आगरा भी पहुंच गयी।  आगरा, खासतौर पर ताजमहल को अकेले-अकेले घूमना भी किसी अनुभव से कम नहीं रहा मेरे लिये।

इस पोस्ट में ताजमहल की ही कुछ तस्वीरें